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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग-मातंग हरिकेश बल : मातंग जातक १४३ शारीरिक सौन्दर्य तथा शोभा, सुषमा आदि से भी रहित था। अन्य बालक उसकी कुरूपाकृति देखकर उसका मजाक उड़ाते । यहाँ तक कि उसके अपने भाई भी उसका परिहास करते। सब उसे 'बल' नाम से पुकारते । उसका यह नाम सब लोगों में प्रसिद्ध हो गया। वह क्रमश: बड़ा होने लगा। अपने से उपहास-परिहास का व्यवहार करने वालों के साथ वह बहुत क्रोध, क्लेश कर बैठता। इससे वह सबको अप्रिय लगने लगा। सांप और गोह एक समय की घटना है, वसन्तोत्सव था। चाण्डाल हरिकेश तथा उसके पारिवारिकजन अनेक प्रकार के खाद्य-पदार्थ लेकर आमोद-प्रमोद हेतु नगर के बाहर गये, खानपान के लिए एकत्र हुए । बालक बल के मन में दूसरे बालकों के प्रति एक खीझ रहती थी । वह उस समय भी वहाँ अपनी जाति के अन्य बालकों के साथ बड़ा क्लेश करने लगा। सजातीय वृद्ध पुरुष उसके नीच व्यवहार से बहुत नाराज हुए और उन्होंने उसे अपनी पंक्ति से बाहर निकाल दिया। वह दूर खड़ा-खड़ा अपने सजातीय बालकों की क्रीड़ा, खेल आदि देखने लगा। उसके मन में आया, वह भी उनके साथ खेले । उसने वैसा चाहा भी, किन्तु, वृद्ध पुरुष जानते ही थे, वह अत्यन्त क्रोधी है; अतः उन्होंने उसे उस ओर नहीं जाने दिया। यह सब चल रहा था कि इतने में वहाँ एक सांप निकला। जो चाण्डाल वहाँ एकत्र थे, उन्होंने उसे भयावह विषधर जानकर मार डाला। कुछ देर बाद वहीं पर एक बहुत लम्बी गोह निकली। चाण्डाल जानते थे कि गोह निर्विष है, इसलिए उन्होंने उसे मारा नहीं, उठाकर दूर फेंक दिया। हरिकेशबल द्वारा दीक्षा चाण्डाल-पुत्र बल दूर खड़ा-खड़ा यह दृश्य देख रहा था। मन-ही-मन वह विचारने लगा, साँप और गोह के सन्दर्भ में घटित घटना कितना स्पष्ट संकेत करती है कि कोई भी व्यक्ति अपने दोषों से ही सर्वत्र कष्टग्रस्त तथा अपमानित होता है एवं अपनी निदोषिता से ही वह परित्राण पाता है। मैं साँप के सहज क्रोध के विष से भरा हूँ, तभी तो मेरा सभी अपमान करते हैं, अवहेलना करते हैं। यदि मैं गोह के सदृश दोष रूपी विष से रहित होता तो मेरा कोई भी तिरस्कार नहीं करता। यह सोचते-सोचते उस बालक को जाति-स्मरणज्ञान-अपने पूर्व-जन्म का ज्ञान उत्पन्न हुआ। उसने अनुभव किया कि अपने पूर्व भव में उसे अपनी जाति की उच्चता का अहंकार था, उसका कुत्सित फल उसने देखा, स्वर्गीय सखों की नश्वरता भी देखी । यों चिन्तन करते-करते उसे संसार त्याज्य प्रतीत हुआ। उसने वैराग्यभावना के साथ प्रव्रज्या स्वीकार की। वह हरिकेश बल मुनि के नाम से जगत् में विश्रुत हुआ। तपोमय जीवन दीक्षित होने के बाद हरिकेशबल ने श्रमण धर्म के आचार का सम्यक् रूप से परिपालन करते हुए तप करना प्रारम्भ किया। वह एकदिवसीय, द्विदिवसीय, त्रिदिवसीय, चतुर्दिवसीय-यों बढ़ते-बढ़ते अर्द्धमासिक एवं मासिक उपवास क्रम द्वारा तप के अनुष्ठान में निरत Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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