________________
xviii
आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड:३ इस भूमि के कण-कण से निकली। यह साहित्य एक ऐसी गौरवमयी वैचारिक विरासत अपने आप में समेटे है, जिसकी अप्रतिम मूल्यता कभी मंद नहीं पड़ सकती। यह उस कोटि का साहित्य है, जिसमें समग्र समाज और राष्ट्र का स्वर मुखरित है। उस पर अनेक पाश्चात्य एवं प्राच्य विद्ववानों ने कार्य किया है, जो साहित्यिक क्षेत्र में बड़ा मूल्यवान् है ।
__इस देश में जन मनीषियों की अपनी एक विशेषता रही है कि वे अपने सिद्धान्तों के परिशीलन, विश्लेषण. विवेचन के साथ-साथ अन्य मत वादियों के सिद्धान्तों की गहराई में भी जाते रहे हैं। ऐसा करने में उन्हें कोई धार्मिक कठिनाई नहीं हुई; क्योकि जैन दर्शन का सारा कार्य-व्यापार अनैकान्तिक दृष्टि से निर्णीत होता है, जो किसी भी पदार्थ की ऐकान्तिक एवं आत्यतिक व्याख्या में विश्वास नहीं करता। वहाँ तो मिथ्याश्रुत भी सम्यकत्वी द्वारा यदि परिगृहीत होता है तो वह सम्यक्-श्रुत की कोटि में आ जाता है। इसके विपरीत सम्यक-श्रुत भी मिथ्यात्वी द्वारा गहीत होने पर मिथ्याश्रुत हो जाता है। यह बड़ी व्यापक विचारधारा है, जो अध्ययन के दायरे को अत्यंत उन्मुक्तता प्रदान करती है।
यह परम हर्ष का विषय है कि देश के उद्बुद्धचेता मनीषी एवं सुप्रसिद्ध लेखक मुनि श्री नगराज जी डी० लिट्० श्रमण संस्कृति के क्षेत्र में तुलनात्मक अध्ययन एव अनुसधान के कार्य में विशेष रूप से संलग्न हैं। वे बहत बडा कार्य सम्पन्न कर च के हैं, और त्रिपिटक: एक अनुशीलन, खण्ड-१ एवं खंड-२ के रूप में विशालकाय जिल्दो में प्राकट्य पा चुका है। भारतीय विद्या के क्षेत्र में मुनिश्री के इन ग्रन्थों की देश-विदेश में बहुत प्रतिष्ठा बढ़ी है।
प्रस्तुत ग्रन्थ उसी शृंखला की तीसरी कड़ी है, जिसमें धर्म, आचार, दर्शन, नीति, सदाचार इत्यादि विषयों तथा समान कथावस्तु, समान विएयवस्तु, समान शैली और निरुपणयुक्त कथानकों, उपाख्यानों, दृष्टान्तों, उदाहरणों का तुलनात्मक रूप में प्रस्तुतीकरण है। वे सब जैन आगम तथा तत्संबद्ध साहित्य से एवं बौद्ध पिटक तथा तत्प्रसूत ग्रन्थों से लिये गये हैं।
जैन विद्या एवं बौद्ध विद्या के तुलनात्मक अध्ययन के क्षेत्र में विद्वद्वर्य मुनिश्री नगराज जी डी. लिट. का विद्वज्जगत् में अपना असाधारण महत्त्व है। विशेषतः भारत की राजधानी दिल्ली जैसे महानगर में प्रवास करते हए वहाँ जन-जागति मूलक अनेक अभियानों के संचालन, पोषण, संवर्द्धन, आदि के मार्गदर्शन प्रभति कार्यों में अत्यधिक व्यस्त होते हुए भी वे साहित्य-सर्जन में इतना समय निकाल पाते हैं, यह न केवल प्रशंसनीय है, वरन् प्रत्येक साहित्य सेवी के लिये अनुकरणीय भी है। प्रस्तुत ग्रन्थ में मुनि श्री जी ने बौद्ध और जैन वाङ्मय के समानतामूलक सैद्धान्तिक आदर्शों एवं कथानकों की विषयवस्तु, पात्र, आदर्श, उद्देश्य तथा अभिप्राय में रहे साम्य या सादृश्य को बड़े ही समीचीन रूप में उपस्थित किया है। मुनि श्री एक अध्यात्मयोगी तो हैं ही, सतत उद्यमशील कर्म योगी भी हैं-जो इस ग्रन्थ के प्रणयन से प्रतीत होता है।
प्राचीन काल में कथात्मक वाङमय में, हम, लोगों को अधिक अभिरुचिशील देखते हैं, क्योंकि साहित्य में साधारणीकरण, (generalisation) कथात्मक कृतियों में जितनी सहजता से सिद्ध होता है, वैसा अन्यान्य विधाओं में उतना शीघ्र नहीं सध पाता। उदा. हरणार्थ, हम पंचतंत्र की कहानियों को ही लें, जिनके पात्र पशुपक्षी, सरिसृप आदि हैं, जो
____Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org