________________
xvii
तत्त्व : आचार : कथानुयोग
एक अवलोकन मारतीय विद्या के क्षेत्र में, धर्म और दर्शन के क्षेत्र में, अनेकानेक ऐसे विषय हैं, जिनपर पुष्कल शोधकार्य हो सकता है उस संदर्भ में भिन्न-भिन्न दिशाओं में विद्वज्जन, अनुसन्धित्सु वृन्द कार्य-संलग्न हैं।
भारतीय विद्या की दष्टि से हमारे समक्ष मुख्यतः दो धाराएं हैं-ब्राह्मण-संस्कृति एवं श्रमण-संस्कृति । ब्राह्मण-संस्कृति वह है, जिसके पुरोधा ब्राह्मण वंशोत्पन्न ऋषि महर्षि थे, जिन्होंने वेदों के अनुरूप इस संस्कृति का सर्जन किया। उसका मुख्य आधार ईश्वरवाद है। उसी के समकक्ष एक और संस्कृति पल्लवित हुई, जिसके पुरोधा मुख्यत: वे क्षत्रिय राजकुमार थे, जिन्होंने अत्यंत वैराग्य के साथ भोगमय, कामनामय, लिप्सामय जीवन का परित्याग कर, अकिंचनता का, त्याग का जीवन अपनाया। ईश्वर के सृष्टि-कर्तृत्व आदि सिद्धान्तों में उनका विश्वास नहीं था। आत्मा के परमात्मभाव में रूपान्तरण में उनकी आस्था थी, जिसे सिद्ध करने की शक्ति आत्मा में है ।
. अपने ही उद्यम, यत्न या श्रम के बल पर व्यक्ति अपना उच्चतम उत्कर्ष सिद्ध करने में सक्षम है, इस आदर्श के स्वायत्तीकरण के कारण यह संस्कृति 'श्रमण-संस्कृति' कहलाई अथवा इसे यों भी कहा जा सकता है- ऐसे आदर्शों पर चलनेवाले त्याग-वैराग्यशील स्व-पर कल्याण परायण साधक, श्रमण कहे जाते थे। उन्होंने श्रममय, तपोमय, साधनामय आदर्शों पर आधारित जिस संस्कृति का निर्माण, विकास और संवर्द्धन किया, वह श्रमण संस्कृति है।
पुरातनकालीन साहित्यिक आधारों से हम पाते हैं कि वह संस्कृति अनेक छोटी-बड़ी धाराओं के रूप में, देश के बौद्धिक चिन्तन को एक सिंचन देती रही। कालक्रम से वे छोटी बड़ी बहुत सी धारायें तो आज बच नहीं पाई हैं भिन्तु जैन और बौद्ध परंपरा के रूप में उसका अस्तित्व प्रत्यक्ष दृश्यमान है। भारत वर्ष में जैन धर्म एक जीवित धर्म है। संख्यात्मक विस्तार की दृष्टि से कम विस्तीर्ण होते हुए भी गुण-निष्पन्नता की दृष्टि से उसका अपना महत्व है। बौद्ध संस्कृति भी कभी भारत के कोने-कोने तक फैली थी। इतना ही नहीं, वह संसार के दूर-दूर के देशों तक पहुँच गयी थी। आज भी वह अनेक देशों में विद्यमान है। भारत में भी आज उसका अस्तित्व तो है किन्तु उसका जो जीवित एवं सक्रिय रूप चतुर्विध संघ के रूप में कमी था, वह नहीं रह पाया है। उसके अनेक कारण हैं, जिनमें अतिविस्तार हेतु अपने मूल को सर्वथा सुरक्षित बनाये रखने के आग्रह की न्यूनता भी एक है। इस पर कुछ विशेष कहना यहाँ अभीप्सित नहीं हैं। प्रासंगिक बात यह है कि श्रमण-संस्कृति की इन दोनों धाराओं ने राष्ट्रीय चेतना में जो पवित्रता, सात्त्विकता, करुणा, मैत्री, सेवाशीलता, अनाग्रहवादिता इत्यादि उत्तम गुण जोड़े, वे वास्तव में अद्भुत हैं। कितना अच्छा हो, संसार के लोग उनका आलंबन करें, अनुसरण करें।
भारतीय विद्या क्षेत्र का इसे परम सौभाग्य माना जाना चाहिए कि जैन और बौद्ध दोनों ही परंपराओं का विपुल साहित्य आज हमें उपलब्ध है । यद्यपि उसे समग्र तो नहीं कह सकते, विलुप्त भी बहुत हुआ है, किन्तु जितना मी प्राप्त है, वह विस्तीर्ण और व्यापक है। इस साहित्य की अपनी अप्रतिम विशेषताएं हैं। यह साहित्य उस विचारचेतना से सजित हुआ है, जो इन्द्रासन से नहीं निकली, राजप्रासादों से नहीं निकली, वरन्
___Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org