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________________ एक अवलोकन प्राच्य विद्या, विशेषत: भारतीय विद्या के क्षेत्र में, वर्तमान युग में, समीक्षात्मक, तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन का जो विकास हुआ है और हो रहा है, वह वास्तव में स्तुत्य है। कुछ समय पूर्व विभिन्न सिद्धान्तों में आस्था रखनेवाले लोगों में अन्य लोगों के सिद्धान्तों को समझने की न जिज्ञासा होती थी और न उस दिशा में कोई उत्सुकता ही थी। इतना ही नहीं, यहाँ तक भी लोगों का मानस था कि अन्य लोगों के सिद्धान्त नहीं जानने चाहिये। प्राचीन काल की अनेक अच्छाइयों के साथ यह एक बुराई भी थी, जिससे विभिन्न धर्म के लोग परस्पर निकट नहीं आ सके। वह दूरी कहीं-कहीं तो इतनी बढ़ गयी कि उसने कलहात्मक रूप भी ले लिया, जो अनेक पुराकालीन ऐतिहासिक घटनाओं से स्पष्ट है। ___ जहाँ धर्म के नाम पर व्यक्ति रक्तपात करने को उतारू हो जाए, वहाँ धर्म वैसा करने वालों की अपेक्षा से अपने सिद्धान्तों में विफल हो जाता है। धर्म तो समता और उदारता की वह मंदाकिनी है, जिससे मैत्री, सद्भावना, वात्सल्य और सात्विक स्नेह की तरंगें उठती रहती हैं। विभिन्न धार्मिक जनों में पारस्परिक सामीप्य साधने का प्रयत्न भी समय-समय पर कतिपय आचार्यों ने किया भी, जो बहुत उपयोगी और सार्थक सिद्ध हुआ। जैन परंपरा में नवम शताब्दी में हुए आचार्य हरिभद्र सूरि एक ऐसे ही महान् समन्वयवादी, क्रांतिकारी महापुरुष थे; किन्तु सामंजस्य का स्रोत अनवरत प्रवहणशील नहीं रहा, जिसका मुख्य कारण एक दूसरे के विचारों से अनभिज्ञता थी। ___ आज निस्संदेह एक सुखद स्थिति है। धार्मिक पार्थक्य और अलगाव की भावना काफ़ी हद तक मिटी है। धर्म के नाम पर आज लोग लड़ने को, कदाचित् होने वाले कुछ अपवादों को छोड़ दें तो विशेषतः उत्साहित नहीं दीखते। उसके दो कारण हैं—एक तो आज मानव अपने कार्मिक जीवन में इतना व्यस्त हो गया है कि उसके पास धर्म के लिये जूझने का समय ही बहुत कम बचता है; दूसरा कारण वह है, जिसका प्रारंभ में ही उल्लेख किया गया है। आज एक दर्शन में आस्थावान् व्यक्ति में दूसरे दर्शन के सिद्धान्तों को जानने की उत्सुकता बढ़ी है। इस युग में समीक्षात्मक एवं तुलनात्मक अध्ययन-पद्धति विकसित हुई है। अन्यों के धर्म-सिद्धान्तों पर शोध करने में अध्येताओं में जरा भी अनोत्सुक्य नहीं दीखता; यह मानवीय प्रज्ञा के प्रकर्ष का एक सुन्दर रूप है। ___ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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