SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] प्रस्तावना XV बना दिया है। मुझे आशा है, जैन तथा बौद्ध-वाङ्मय के क्षेत्र में अनुसन्धित्सुओं एवं अध्येताओं द्वारा यह ग्रन्थ समादृत और प्रशंसित होगा। दो भागों में विभाजित यह ग्रन्थ निःसन्देह मुनिश्री नगराजजी डी० लिट० की एक अनुपम देन है, जो भारतीय विद्या के क्षेत्र में चिरस्थायी स्थान प्राप्त करेगी। यह बहुत उपयोगी होगा कि विभिन्न विश्वविद्यालयों द्वारा जैन-दर्शन, बौद्ध-दर्शन तथा भारतीय विद्या के तुलनात्मक अध्ययन के सन्दर्भ में स्नातकोत्तीय पाठ्यक्रमों में इसे रखा जाए। इससे विद्यार्थियों को उन तथ्यों का विशद ज्ञान प्राप्त होगा, जिसे स्वायत्त करना उन-उन विषयों में शोध-कार्य करने से पूर्व आवश्यक है। मैं इस ग्रन्थ के व्यापक प्रसार की कामना करता हूँ तथा मुनिश्री नगराजजी डी० लिट० को इस बहुमूल्य साहित्यिक सर्जन के लिए वर्धापित करता हूं। मद्रास १७ फरवरी १९८७ (डॉ०) टी० जी० कलघटगी एम० ए०, पी-एच० डी० प्राध्यापक एवं अध्यक्ष-जैन विद्या विभाग, मद्रास विश्वविद्यालय, मद्रास ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy