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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
खण्ड:३ कहते हैं।'
बाल-तप धर्म नहीं सम्यक् श्रद्धा एवं बोध पूर्वक कृत आचरण सम्यक्-आचरण है । सम्यक्-दर्शनश्रद्धा एवं ज्ञान के बिना किया गया घोर तप भी कोई विशेष महत्त्व नहीं रखता । वह काय-क्लेश से बहुत आगे नहीं जाता। निकेवल काय-क्लेश से अध्यात्म नहीं सघता, धर्म नहीं फलता, परम कल्याण, जो जीवन का चरम साध्य है, नहीं उपलब्ध होता; इसलिए वैसा तप ज्ञानी या विवेकी का तप नहीं कहा जाता, बाल या अज्ञानी का तप कहा जाता है। तत्त्वतः इसे जैन एवं बौद्ध-दोनों ही धर्मों ने घोषित किया है।
बाल-अज्ञानयुक्त पुरुष मास-मास का अनशन करता है और कुश की नोक पर टिके, इतने से भोजन द्वारा पारणा करता है, देखने में बड़ा उग्र तप यह लगता है, किन्तु, सुआख्यात-अपने दिव्य ज्ञान के आधार पर तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित धर्म के परिशीलन के सोलहवें अंश जितना भी वह नहीं है।
___ एक अज्ञ पुरुष एक-एक महीने के बाद कुश के अग्रभाग पर टिके, इतना सा भोजन करता है। कहने को यह घोर तप है, किन्तु संख्यात धर्मा-जिन्होंने धर्म को सम्यक् रूप में समझा है, स्वायत्त किया है, उन की महत्ता के सोलहवें भाग जितना भी वह नहीं है।'
१. यो वे ठितत्तो तसरं व उज्जु, जिगुच्छति कम्मे हि पापकेहि । वी मंसमानो विसमं समं च, तं वापि धीरा मुनि वेदयन्ति ।
-सुत्तनिपात १२ मुनि सुत्त ६ २. मासे मासे उ जो बालो, कुसग्गेणं तु मुंजए । __ण सो सुअक्खायधम्मस्स, कलं अग्घइ सोलसि ।।
-उत्तराध्ययन सूत्र ६.४४ ।। ३. मासे मासे कुसगोन, बालो भुजेथ भोजनं । न सो संखतधम्मानं, कलं अग्घति सोलसि ।।
-धम्मपद ५.२११
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