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तत्त्व : आचार : कथानुयोग]
आचार
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यह वाचिक शुद्ध आचरण का क्रम है।
"गृहपतियो ! आर्य श्रावक ऐसा चिन्तन करता है-यदि मेरे समक्ष कोई बड़ी-बड़ी बातें बनाए, वृथा बकवास करे, निरर्थक बातें करे तो वह मुझे प्रिय, इष्ट, वाञ्छिन नहीं प्रतीत होता । यदि मैं किसी दूसरे के समक्ष बड़ी-बड़ी बातें बनाऊं, वृथा बकवास करूँ, निरर्थक बात करूं तो उसे मेरा यों करना प्रिय, इष्ट, वाञ्छित नहीं लगेगा। जो मैं अपने लिए नहीं चाहता, वह दूसरे के लिए क्यों करूं, दूसरे के लिए कैसे कर सकता हूँ। यह सोचकर, अन्तर्मन्थन कर वह बड़ी बड़ी बातें बनाने से, वृथा बकवास करने से, निरर्थक बातें करने से विरत होता है। वैसा करने का परित्याग करता है। औरों को वैसा करने का उपदेश देता है, उस ओर प्रेरित करता है। जो वृथा बकवास एवं निरर्थक बातें करने से विरत हैं, उनकी प्रशंसा करता है। इस प्रकार वह अपने वाचिक आचरण के परिशोधन की दिशा में अग्रसर होता है।
वह आर्य श्रावक बुद्ध के प्रति दृढ़ श्रद्धालु होता है, धर्म के प्रति दृढ़ श्रद्धालु होता है, संघ के प्रति दृढ़ श्रद्धालु होता है तथा उत्तम शीलानुपालन में अभिरत होता है।
"गृहपतियो ! जो आर्य श्रावक इन सात उत्तम धर्मों तथा इन चार उत्तम स्थानों से युक्त होता है, वह यदि चाहे तो अपने सम्बन्ध में यह आख्यात कर सकता है, घोषित कर सकता है-मेरा निरय--नरक योनि-क्षीण, नष्ट हो गई है, मैं नरकगामी नहीं हूँगा। मेरी तिर्यक्-योनि क्षीण -नष्ट हो गई है--मैं पशु-पक्षियों में जन्म ग्रहण नहीं करूंगा, मेरा प्रेत लोक में उत्पन्न होना क्षीण हो गया है। मैं स्रोतापन्न हूं-धर्म के स्रोत में -प्रवाह में आपन्न हूँ-संप्रविष्ट, हूँ, परम ज्ञान प्राप्त करने की दिशा में यत्नशील हूं।"
भगवान् द्वारा यों कहे जाने पर बेलुद्वार के ब्राह्मण गृहपतियों ने भगवान् से निवेदित किया-'गौतम ! आप हमें अपने उपासकों के रूप में स्वीकार करें।"१
ऋजुता : शुद्धि का कारण
ऋजुता या सरलता में जीवन की सहजता प्रस्फुटित होती है। वहाँ छल-कपट जैसी कलुषित वृत्तियाँ पनप नहीं पातीं । ऋजुतामय जीवन धार्मिक दृष्टि से उत्तम तथा प्रशस्त जीवन है। ऋजुचेता पुरुष धर्म-पथ पर उत्तरोत्तर और निर्विघ्न बढ़ता जाता है।
___ जो ऋजुभूत्त है-- सरल है, वह शुद्धि-शुद्धत्व-शुद्ध जीवन प्राप्त करता है। धर्म शुद्ध आत्मा में टिकता है । धृत-सिक्त-घी से सींची गई अग्नि की ज्यों वह धर्म की ज्योति से देदीप्यमान होता है, अन्ततः मुक्ति प्राप्त करता है ।
जो तसर की ज्यों ऋजु -- सरल एवं स्थिर चित्त युक्त होता है, वह पाप-कों से घृणा करता है, दूर रहता है, समता, विषमता में जागरूक रहता है, धीर पुरुष उसे मुनि
१. संयुत्त निकाय, दूसरा भाग, बेलुद्धारेय्य सुत्त ५३.१-७ २. सोही उज्जुयभूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिठ्ठइ । णिव्वाणं परमं जाइ, घय सित्तिव्व पावए॥
-उत्तराध्ययनसूत्र ३.१२
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