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________________ __ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : ३ करता है। जो चोरी का परित्याग कर चुके हैं, उनकी प्रशंसा करता है। यह अचौर्यमूलक शुद्ध आचरण है, जिस ओर वह गतिशील होता है। "गृहपतियो! आर्य श्रावक मन में सोचता है यदि कोई पुरुष मेरी स्त्री के साथ दुराचरण करे, व्यभिचार करे तो उसके द्वारा वैसा किया जाना मुझे प्रिय, इष्ट नहीं लगता। यदि मैं किसी अन्य की स्त्री के साथ व्यभिचार करूँ तो उसे यह प्रिय, इष्ट नहीं लगता। जो मैं अपने लिए किया जाना अभीष्ट नहीं समझता, वैसा दूसरे के लिए मैं कैसे कर सकता हूँ; ऐसा विचार कर अन्तर्मन्थन कर, आर्य श्रावक पर स्त्रीगमन से विरत होता है, परस्त्रीगमन का परित्याग करता है, औरों को वैसा करने का उपदेश देता है, औरों को उस ओर प्रेरित करता है। जो वैसा किये हुए हैं, उनकी प्रशंसा करता है। यह काम भोग सम्बन्धी शुद्ध आचरण की ओर अग्रसरता है। "गृहपतियो ! आर्य श्रावक मन में विचारणा करता है यदि कोई मुझे झूठा चकमा देकर ठग ले, मुझे उसके द्वारा ऐसा किया जाना प्रिय, इष्ट नहीं लगता। यदि मैं किसी को झूठा चकमा देकर ठगलूं तो उसे मेरे द्वारा ऐसा किया जाना प्रिय, इष्ट नहीं लगता, जिसे मैं अपने लिए किया जाना अप्रिय तथा अनिष्ट मानता हूँ, वैसा मैं दूसरों के लिए कैसे कर सकता हूँ। यह विचार, अन्तर्मन्थन कर वह किसी को झूठा चकमा देने से विरत होता है। किसी को झूठा चकमा देने का परित्याग करता है, औरों को उसका परित्याग करने का उपदेश करता है, उस ओर उन्हें प्रेरित करता है । जो ऐसा कर चुके हैं, उनकी प्रशंसा करता है। यह वाचिक शुद्ध आचरण की प्रक्रिया है। "गृहपतियों ! आर्य श्रावक ऐसा विचार करता है—यदि कोई मेरी चुगली कर मेरे सुहृदों, मित्रों के साथ मेरा वैमनस्य उत्पन्न करा देता है, उनसे मेरा संघर्ष करवा देता है, झगड़ा करवा देता है, उसका वैसा करना मुझे प्रिय, इष्ट नहीं लगता । यदि मैं किसी और की चुगली कर उसका उसके सुहृदों, मित्रों के साथ वैमनस्य उत्पन्न करवा देता हूँ, संघर्ष करवा देता हूँ तो उसे मेरे द्वारा वैसा किया जाना प्रिय, इष्ट नहीं लगता; यह विचार, अन्तर्मन्थन कर वह चुगली से विरत होता है, चुगली का परित्याग करता है, औरों को चुगली का परित्याग करने का उपदेश देता है, उन्हें उस ओर प्रेरित करता है। जो वैसा कर चुके हैं, उनकी प्रशंसा करता है। यह वाचिक आचरण की परिशुद्धि का क्रम है, जिस ओर वह गतिमान होता है। "गहपतियों ! आर्य श्रावक ऐसी विचारणा करता है यदि कोई मुझे परुष वचनकठोर वचन, कड़ी बात कहे तो मुझे उस द्वारा वैसा किया जाना प्रिय, इष्ट, वाञ्छित नहीं लगता । यदि मैं किसी को परुष वचन - कठोर वचन, कड़ी बात कहूँ तो उसे प्रिय, इष्ट तथा वाञ्छित प्रतीत नहीं होती। जो बात मुझे अप्रिय, अनिष्ट, अवाञ्छित लगती है, वह दूसरे को भी वैसी ही लगती है। जिसे मैं अपने लिए नहीं चाहता, वह दूसरे के लिए कैसे कर सकता हूँ। यह सोचकर, अन्तर्मन्थन कर वह परुष वचन से विरत होता है। परुष वचन का परित्याग करता है, दूसरों को परुष वचन का परित्याग करने का उपदेश देता है, उन्हें उस ओर प्रेरित करता है। जो परुष वचन से विरत हैं, उनकी प्रशंसा करता है। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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