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________________ १३४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : ३ परित्याग करता है आया। भगवान् को अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठकर महानाम शाक्य ने भगवान् से कहा- "भन्ते ! कोई पुरुष उपासक कैसे होता है ?" ___ "महानाम ! जो बुद्ध की शरण स्वीकार करता है, धर्म की शरण स्वीकार करता है संघ की शरण स्वीकार करता है, वह उपासक होता है।" "भन्ते! उपासक शील-संपन्नता कैसे प्राप्त करता है?" "महानाम ! जो उपासक जीव-हिंसा से विरत होता है, जीवों की हिंसा करने का करता है, जो अदत्तादान से विरत होता है-अदत्तादान का-चौर्य का परित्याग करता है, जो काम-मिथ्याचार से-व्यभिचार से विरत होता है-काम-मिथ्या रत्याग करता है, जो मिथ्याभाषण से विरत होता है-असत्य का परित्याग करता है, जो सुरा आदि मादक द्रव्यों के सेवन से विरत होता है-मदिरा आदि मादक पदार्थों के सेवन का परित्याग करता है, वह उपासक शील-संपन्न होता है।" "भन्ते ! उपासक श्रद्धा-संपन्नता कैसे प्राप्त करता है ?" "महानाम ! जो उपासक बुद्ध द्वारा अधिगत प्रतिबोधित श्रद्धा में विश्वास करता है, वह श्रद्धा-संपन्नता प्राप्त करता है।" 'भन्ते ! उपासक त्याग-संपन्नता कैसे प्राप्त करता है ?" "महानाम ! जो उपासक अन्तर्मल से, भीतरी कालिमा से, मत्सरता से- ईर्ष्या, द्वष आदि से विरत होता है, इनका परित्याग करता है, वह त्याग संपन्नता प्राप्त करता है। "भन्ते ! उपासक ! प्रज्ञा-सम्पन्नता कैसे प्राप्त करता है ? "महानाम ! उपासक इस बात का विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करता है कि संसार की समग्र वस्तुओं का उदय-उद्भव, अस्त-विलय होता है, ऐसा ज्ञान हो जाने से दुःख सर्वथा क्षीण हो जाते हैं, नष्ट हो जाते हैं। यह आर्य--उत्तम प्रज्ञा है, तीक्षण प्रज्ञा है—सूक्ष्मावगहिनी प्रज्ञा है। इससे उपासक प्रज्ञा-संपन्नता प्राप्त करता है।" बौद्ध-उपासक को चाहिए, वह इन चार प्रकार के पाप-कर्मों से पराङ्मुख रहे१. पाणातिपात-किसी के प्राण लेना-हिंसा करना । २. अदिन्नादान-बिना दिये किसी की वस्तु लेना, चोरी करना। ३. मुसावाद-असत्य बोलना। ४. परदारगमन-परस्त्री का सेवन करना।' एक समय का प्रसंग है, भगवान् तथागत कोशल के अन्तर्गत विहार करते हुए अपने भिक्षओं के साथ कोशलों के वेलुदार नामक ग्राम में पहुंचे। वहाँ विशेषतः ब्राह्मणों की आबादी थी; अतः वह ब्राह्मण-ग्राम कहा जाता था। वेलुग्रामवासी ब्राह्मण-गृहपतियों ने यह सुना, शाक्यवंशिय गौतम जो प्रवजित हैं, कोशल में विहार करते हुए अपने भिक्षुओं के साथ हमारे गाँव में पहुंचे हैं। वे परम यशस्वी हैं, अर्हत हैं, सम्यक सम्बुद्ध हैं, वे ज्ञान के साक्षात्कर्ता हैं- सर्वद्रष्टा हैं, धर्म का उपदेश करते १. संयुक्त निकाय, दूसरा भाग, महानाम सुत्त ५३.४.७ २. दीध निकाय, सिगालोवाद सुत्त ८.१.४ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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