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तत्त्व : आचार : कथानुयोग [
आचार निर्वाह करते रहना उसके लिए आवश्यक है। अतएव धर्माराधना तथा व्रत-निर्धारण में उसके लिए अपेक्षाकृत ससीमता का स्वीकार है। जैन-परम्परा तथा बौद्ध-परम्परा में एक गृही उपासक के लिए जो आराधना-पथ प्रतिपादित हुआ है, वह मूल भावना की दृष्टि से परस्पर समन्वयगामी है।
भगवान् महावीर ने द्वादशविध अगार-धर्म-गृहि-धर्म-पाँच अणुव्रत, तीन गुणवत तथा चार शिक्षाक्त के रूप में निरूपित किया--
पाँच अणुव्रत इस प्रकार हैं
१. स्थूल रूप में, मोटे तौर पर सापवाद—अपवाद रखते हुए प्राणातिपात-हिंसा से निवृत्ति ।
२. स्थूल रूप में मृषावाद-असत्य से निवृत्ति ।
३. स्थूल रूप में अदत्तादान—बिना दी हुई वस्तु स्वायत्त करने से-चोरी से निवृत्ति।
४. अपनी विवाहिता पत्नी तक मैथुन की सीमा-अब्रह्मचर्य से ससीम निवत्ति। ५. इच्छा-परिग्रह-लिप्सा का परिमाण-परिग्रह से समर्याद निवृत्ति । तीन गुणव्रत इस प्रकार हैं
१. अनर्थ-दण्ड-विरमण-अनर्थकर-अहितकर या आत्मगुण-विघातक प्रवृत्ति का त्याग।
२. दिग्वत—भिन्न-भिन्न दिशाओं में गमन करने के सम्बन्ध में मर्यादा या सीमाविशेष का स्वीकरण।
३. उपभोग-परिभोग-परिमाण-उपभोग–अनेक बार भोगे जाने योग्य-वस्त्र आदि तथा परि मोग--एक ही बार भोगे जाने योग्य भोजन आदि पदार्थों का परिमाणसीमाकरण-इनसे समीम निवृत्ति।
चार शिक्षाव्रत इस प्रकार हैं
१. समत्व-भाव अधिगत करने हेतु एक नियत समय (न्यूनतम एक मुहूर्त) पर्यन्त साधनाभ्यास ।
२. देशावकाशिक--अपनी प्रवृत्तियों में नित्य प्रति संयमन या निवृत्ति बढ़ाते जाने का अभ्यास।
३. पौषधोपवास-संयमाराधना में अग्रसर होते रहने हेतु, उन्नयन हेतु विशेष विधिक्रम के साथ भोजन, अब्रह्मचर्य आदि का त्याग ।
४. अतिथि-संविभाग--जिनके आने की कोई तिथि-दिवस निश्चित नहीं, ऐसे अनि मन्त्रित संयोगवश आगत संयमी साधकों, सार्मिक जनों को धार्मिक साधना में, जीवन परिचालना में अपेक्षित स्वाधिकृत वस्तु के, सामग्री के, एक भाग का समर्पण, ऐसा सदा मन में भावानभावन ।'
एक समय का प्रसंग है, भगवान् तथागत शाक्य जनपद के अन्तर्गत कपिलवस्तु में न्यग्रोधाराम में अवस्थित थे। उस समय महानाम नामक शाक्य जहाँ भगवान् थे, वहाँ
१. उपासकदशा अध्ययन १, सूत्र ११
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