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१३२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : ३ जब तक भोग-विषय-जन्य पापों का परिपाक नहीं होता, तब तक अज्ञानी मनुष्य को वे (भोग) मधु की ज्यों मीठे लगते हैं। जब पाप पक जाते हैं तो वह अज्ञानी बड़ा दुःख पाता है।'
भगवान् तथागत ने मागन्दिय परिव्राजक से कहा- 'क्या तुमने कभी देखा या सुना है-काम-गुणों में-विषय-भोगों में अत्यन्त लिप्त तल्लीन कोई राजा या राजा का महामन्त्री काम-तृष्णा की-विषय-भोगों की वासना का, लिप्सा का परित्याग किये बिना, विषय-भोगों की जलन को छोड़े बिना, उधर से वितृष्ण हुए बिना क्या कभी उपशान्त-चित्त हुआ-क्या कभी चैतसिक शान्ति प्राप्त की ? क्या कभी चैतसिक शान्ति प्राप्त करता है, क्या कभी करेगा?"
___ मागन्दिय परिव्राजक बोला-'नहीं, गौतम ! न वैसा कभी हुआ, न होता है और न होगा?"
__भगवान् ने कहा-“मागन्दिय ! तुम ठीक कहते हो। मैंने भी नहीं देखा, नहीं सुना-काम-गुणों में-विषय-भोगों में अत्यन्त लिप्त, तन्मय कोई राजा या राजा का महामन्त्री काम-तृष्णा की-विषय-भोगों की वासना का, लिप्सा का परित्याग किये बिना, विषय-भोगों की जलन को छोड़े बिना, उधर से वितृष्ण हुए बिना कभी उपशान्तचित्त हआ-कभी चैतसिक शांति की, प्राप्त करता है या करेगा।
"मागन्दिय ! जो भी श्रमण-ब्राह्मण भोग-लिप्सा से विरहित हुए, आभ्यन्तर तृप्ति या शान्तियुक्त हुए वे सभी काम-समुदाय-विषय भोगों के उद्भव, कारण अस्तगमनविलय, आस्वाद–अनुभूति, दोष, निःसरण-काम-भोगों से निकलने के छूटने के उपाय इनको भलीभांति जानकर, विषय-भोगों की लिप्सा का, वासना का परित्याग कर विषय. भोग सम्बन्धी दाह का परिवर्जन कर काम-पिपासा-वैषयिक तृष्णा से विरहित होकर ही हुए, होते है, होंगे।
भगवान् ने आगे कहा-"मागन्दिय ! आरोग्य-अरुग्णता, नीरोगता-आभ्यन्तर विकारशून्यता परम लाभ है-महान् लाभ है। निर्वाण परम सुख है, महत् सुख है।"२
गृहि-धर्म
संन्यस्त और गृहस्थ-जीवन में साधना, त्याग तथा संयम की दृष्टि से आपेक्षिक तारतम्य स्वीकार किया गया है। संन्यासी सर्वत्यागी होता है। पारिवारिक एवं लौकिक उत्तरदायित्व से वह विमुक्त होता है । अतएव उसका साधनाक्रम निरपवादरूप में चलता है। तदनुसार उसके लिए व्रत-चर्यादि की व्यवस्था है, एक गृही उपासक पर पारिवारिक, सामाजिक तथा लौकिक दायित्वों का भार होता है, जिस का कर्तव्य बोधपूर्वक सम्यक्
१. मधु वा मअति बालो, याव पापं न पच्यति । यदा च पच्यती पापं, बालो दुक्खं निगच्छति।।
-धम्मपद ५.१० २. मज्झिमनिकाय, मागन्दिय सुत्तन्त २.३.५
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