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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ]
आचार
१३१ यह संग-आसक्ति-काम परिमितार्थ- परिमित, सीमित, बहुत कम सुख देने वाला है। वह अल्पस्वाद है-तुच्छ आस्वादयुक्त है, विपुल दुःखप्रद है ।
विज्ञ पुरुष को धधकते अंगारों से आपूर्ण गड्ढे की तरह अब्रह्मचर्य का परिवर्जनपरित्याग करना चाहिए।
काम ! मैंने तुम्हारा मूल पहचान लिया है। तुम आसक्तिपूर्ण संकल्प से उत्पन्न हो मैं आसक्तियों से दूर रहता हुआ मनमें तुम्हारा संकल्प ही नहीं करूंगा। तुम उत्पन्न नहीं हो पाओगे।
शील-ब्रह्मचर्य सर्वोत्तम आमरण-~-अलंकरण है, अनुत्तर–सर्वातिशायी-सर्व श्रेष्ठ सौरभ है और वह जीवन-यात्रा में सर्वोत्कृष्ट पाथेय है।४
संसर्ग-संगति या आसक्ति से स्नेह उत्पन्न होता है । स्नेह दु:ख-प्रसूति का हेतु है-उससे दु:ख पैदा होता है।५ ।
जो काम-भोग की कामना करता है, वह दुःख की कामना करता है-दुःख को आमन्त्रित करता है ।६
अधिकतर मनुष्य भोगों से अतृप्त-अपरितुष्ट रहते हुए ही मृत्यु के मुंह में पहुँच जाते हैं । अभिप्राय यह है, वास्तव में भोगों से कभी तृप्ति होती ही नहीं । ज्यों-ज्यों वे भोगे जाते हैं, लिप्सा, लोलुपता बढ़ती जाती हैं।"
काम-भोग कटुक हैं-कडुए हैं । वे आशीविष सर्प के भयावह विष की ज्यों हैं ।
१. संगो एसो परित्तमत्थ सौख्यं अप्पसादो दुकावमेत्थ भिय्यो।
-सुत्तनिपात ३.२७ २. अब्रह्मचरियं परिवज्जयेय, अंङ्गारका सुजलितं वञ्ज ।
-सुत्तनिपात २६.२१ ३. अदृसं काम ! ते मूलं, संकप्पा काम ! जायसि । न तं संकप्पयिस्सामि, एवं काम ! न होहिसि ॥
-मझिम निकाय १.१.१ ४. सील आमरणं सेठें ।
सीलं गन्धो अणुत्त रो। सीलं पाथेय्यमुत्तमं ॥
-थेरगाथा ६१७ ५. संसग्गजातस्स भवन्ति स्नेहा, स्नेहान्वयं दुक्खमिंद पहोति ।
-सुत्तनिपात ३.२ ६. यो कामे कामयति, दुक्खं सो कामयति ।
-थेरगाथा ६६ ७. अतित्ता व मरन्ति नरा।
-थेरीगाथा १६.१.४८६ ८. कामा कटुका असिविसूपमा।
-थेरगाथा ४५१
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