SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 190
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड:३ काम-भोग क्षणमात्र के लिए सुखप्रद हैं, बहुत काल पर्यन्त दुःखप्रद हैं । वे अत्यन्त अल्प सुखयुक्त हैं, अति विपुल दुःखयुक्त हैं। वे संसार-जन्म-मरण की श्रृंखला के संवर्धक हैं, मोक्ष के विपक्षी हैं- मोक्ष-मार्ग में विघ्न रूप हैं। वे अनर्थों की खान हैं।' भेदायतनवर्जी-चारित्र को भग्न करनेवाले स्थानों-कारणों का वर्जन करनेवाले साधक घोर-नरकादि दुर्गतियों में डालनेवाले, भीषण कष्टप्रद, प्रमादोत्पादक एवं दुरधिष्ठित-परिणाम-दुःखद अब्रह्मचर्य का कभी सेवन नहीं करते। स्वर्ग में, लोक में जो भी शारीरिक एवं मानसिक कष्ट हैं, वे सब कामानुगद्धिप्रसूत हैं-काम भोगाभिलाषा से उत्पन्न हैं। किंपाक फल खाने में मधुर लगता है, किन्तु उसका परिणाम सुन्दर-सुखद नहीं होता। उसी प्रकार काम-भोग भोगे जाते समय प्रिय लगते हैं, किन्तु, उनका परिणाम असुन्दर, अप्रिय, दुखावह होता है।४। ये संग-प्रियजन के प्रति स्नेह-सम्बन्ध-आसक्त भाव मनुष्य के लिए समुद्र की ज्यों दुस्तर हैं। इन स्नेहासक्तियों में जो मूच्छित रहते हैं- अपना भान भूले रहते हैं, वे इस संसार में बड़ा कष्ट पाते हैं। ___ जो काम-भोगों की अभीप्सा लिये रहते हैं, वे दुःखों का अनुभव करते हैं-दुःखित होते हैं, दुःख झेलते हैं। काम का---भोग-वासना का कीचड़ बड़ा दुरत्यय-दुस्तर है। १. खणमित्तसुक्खा बहुकालदुक्खा, पगाम दुक्खा अणि गामसोक्खा। संसारमोक्खस्स विपक्खभूया, खाणी अणत्थाण उ कामभोगा । -उत्तराध्ययन सूत्र १४.१३ २. अबंभचरियं घोरं, पमायं दुर हिट्ठियं । णायरंति मुणी लोए, भेयायणवज्जिणो ।। -दशवकालिक सूत्र ६.१६ ३. कामाणु गिद्धिप्पभवं खु दुक्खं, सव्वस्स लोगस्स सदेवगस्स । जं काइयं माणसियं च किंचि, तस्संतगं गच्छइ वीयरागो।। -उत्तराध्ययन सूत्र ३२.१६ ४. जहा किंपाग फलाणं, परिणामो न सुंदरो। एवं भुत्ताण भोगाणं, परिणामो न सुंदरो।। -उत्तराध्ययन सूत्र १६.१८ ५. एते संगा मणुस्साणं, पाताला व अतारिमा । कीवा जत्थ य कीसंति, नातिसंगेहिं मुच्छिता ।। --सूत्रकृतांग १.३.२.१२ ६. कामाकाम दुक्खानि अनुभोति । -थेरगाथा ५०७ ७. कामपंको दुरच्चयो। - सुत्तनिपात ५३.११ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy