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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ]
--अक
से अनुप्राणित है, वह सब प्रकार के दुःखों से मुक्त हो जाती है, छूट जाती है । " जो इन्द्रियाँ अरक्षित हैं — अनियन्त्रित हैं - असंयत हैं, वे अहित के लिए हैंल्याणकर हैं । जो इन्द्रियाँ सुरक्षित हैं — नियन्त्रित हैं-संयत हैं, वे हित के लिए हैंकल्याणकर हैं ।"
काम - विजय
काम यद्यपि अति कष्टकर, विघ्नकर एवं विकृतिजनक है, अत्यन्त दुर्जय है, किन्तु, साधक यदि अपना अन्तर्बल संजोकर वैराग्य, तितिक्षा तथा संयम के सहारे उसका सामना करे तो निःसन्देह उसे पराभूत कर सकता है । जो ऐसा कर पाते हैं, वे कभी परितप्त, उद्विग्न एवं दुःखित नहीं होते ।
काम का काम भोगों का अवक्रमण करो --- उन्हें लांघ जाओ, उनसे हट जाओ । निश्चय ही ऐसा करने से दुःख अपक्रान्त होगा - नष्ट होगा । 3
अनवरत भोगे जाते रहने पर भी काम - भोग मिटते नहीं। उनसे मनुष्य कभी परितुष्ट नहीं होता । *
काम शल्यरूप है --- काँटों की ज्यों मर्मभेदी है, विषवत् उग्र है, आशीविष— एक विशेष जातीय भयावह सर्प के दाँतों के तीव्र जहर के समान पीडाप्रद है । काम इतना भीषण है कि चाहने वाले को प्राप्त न होकर मी चाहने मात्र से ही दुर्गति में ला पटकता है ।
१. अरक्खिओ जाइपहं उवेइ, सुरक्खि
आचार
काम दुरतिक्रम है – कामेच्छा या काम-वासना का अतिक्रमण - लंघन करना वास्तव में बड़ा कठिन है ।
जो पुरुष काम-भोगों की अभिलाषा करता है, वह उनके अप्राप्त होने पर या प्राप्त भोगों के चले जाने पर शोक करता है, विसूरता है, तप्त होता है, पीडित होता है, परितप्त होता है।
सत्वदुहाणमुच्चइ ।
- दशवैकालिक चूलिका २.१६
२. इन्द्रियाणि अरक्खितानि अहिताय, रवििखतानि हिताय च । -थेरगाथा ७.३१
३. कामे कमाही कमियं खु दुक्खं ।
--दशवैकालिक सूत्र २.५
४. न कामभोगा समयं उवेंति, न यावि मोगा विगई उवेंति ।
-- उत्तराध्ययन सूत्र ३२.१०१ ५. सल्लं कामा विसं कामा, कामा आसी विसोवमा । अकामा जंति दुग्गइं ॥
कामे पत्थे माणा,
- उत्तराध्ययन सूत्र ६.५३ ६. कामा दुरतिक्कमा ....कामकामी खलु अयं पुरिसे, से सोयति, जूरति, तिप्पति, पिड्डति, परितपति ।
-- आचारांग सूत्र १.२.५.४.
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