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________________ १२६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : ३ है । अप्रमाद द्वारा वह संसार रूपी अर्णव को तैर जाता है । पराक्रम - पुरुषार्थ द्वारा दुख का अतिगमन करता है और प्रज्ञा द्वारा प्रकृष्ट बुद्धि द्वारा ज्ञान द्वारा परिशुद्ध होता है।' भगवान् के उत्तर से आलवक प्रभावित हुआ, परितुष्ट हुआ । "" जो अपने द्वारा आचीर्ण भूलों की गर्हा - निन्दा करता है - पश्चात्ताप करता है; उम्हें फिर दोहराता, वह धीर पुरुष पूर्व दृष्ट, श्रुत- पहले देखे, सुने काम-भोगों में लिप्त नहीं होता । " यदि पुरा - पूर्व का, पहले का, पश्चात् — अन्त का कुछ नहीं रहा तो बीच में फिर क्या बचेगा - यदि प्रारंभ का और अन्त का त्याग कर दिया तो मध्य सहज ही छूट जायेगा । 3 होता जैसे भद्र - विनीत - अनुशासित घोड़ा चाबुक खाये बिना ही संकेत मात्र द्वारा ठीक मार्ग पर चलने लगता है, उसी प्रकार आत्मलज्जाशील योग्य जन डाँट खाये बिना ही, गुरुजन का संकेत पाते ही सत् आचरण में संलग्न हो जाते हैं । जो पूर्णतः परिनिर्वृत्त हैं, उनके लिए प्रज्ञा- आपादन - रक्षित : अरक्षित बाह्य परिरक्षा, हिफाजत केवल कहने भर को रक्षा है। उससे अन्ततः कोई परिरक्षित नहीं होता । प्राणी के लिए वास्तविक परिरक्षण संयम है, जो उसे असत् से बचाये रखता है । जो संयमशून्य है, वह निःसन्देह रक्षाशून्य है । जैन तथा बौद्ध दोनों परम्पराओं में इस पर बहुत बल दिया गया है । जो आत्मा अरक्षित है - संयममयी सुरक्षा से रहित है, वह जन्म-मरण बढ़ाती है । उसे बार-बार जन्म तथा मृत्यु के चक्र में भटकना होता है । जो आत्मा सुरक्षित है—संयम १. सद्धाय तरति ओघं, अप्पमादेन अण्णवं । विरियेन दुक्खं अच्चेति, पञ्ञाय परिसुज्झति ॥ - सुत्तनिपात १०, आलवक सुत्त ४ २. यदत्तगरही तदकुव्वमानो, न लिम्पति दिट्ठसुतेसु धीरो । -मज्झिम निकाय ११.२३२ ३. मज्झो वे नो गेहस्ससि, उपसन्तो चरिस्ससि । - सुत्तनिपात ५३.१५ ४. तेसि नत्थि पञ्ञापनाय । Jain Education International 2010_05 - उदान ६.८ ५. हरी निसेधो पुरिसो, कोचि लोकस्मि विज्जति । यो निन्दं अप्पबोधति, अस्सो भद्दो कसामिव ॥ - धम्मपद १०.१५ - उपदेश अपेक्षित नहीं For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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