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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] ओचार १२७ संसार-सागर को पूर्णत: पार कर जाओ।" सुत्तनिपात में एक कथा है—एक बार भगवान् तथागत आलवी में आलवक यक्ष के भवन में टिके। आलवक भगवान् के पास आया और बोला-श्रमण ! यहां से चले जाओ।" "अच्छा, आयुष्मन् ! चला जाता हूँ।" यों कहकर भगवान् भवन से बाहर चले गये। फिर आलवक बोला- "श्रमण ! अन्दर आ जाओ।" भगवान् अन्दर चले गये। यक्ष ने पुनः कहा-"श्रमण ! बाहर चले जाओ।" भगवान् बाहर चले गये। फिर यक्ष के कहने पर भीतर चले गये। तीसरी बार भी ऐसा हुआ। चौथी बार फिर यक्ष ने कहा- श्रमण ! यहाँ से बाहर निकल जाओ।" भगवान् बोले-"आयुष्मन् ! इस प्रकार क्या करते हो ? मैं यहाँ से नहीं निकलूंगा, तुम जो चाहो, कर लो।" आलवक ने कहा-"श्रमण ! मैं तुमसे प्रश्न पूछेगा। यदि तुम उनका उत्तर नहीं दे पाओगे तो मैं तुम्हारे चित्त में विक्षेप पैदा कर दूंगा-तुम्हे पागल बना दूंगा। तुम्हारे हृदय को विदीर्ण कर डालूंगा। चीर डालूंगा। टाँगें पकड़ कर तुम्हे गंगा के पार फेंक दूंगा।" भगवान ने कहा - 'आयुष्मन् ! देव, मार, ब्रह्म, श्रमण, ब्राह्मण आदि समस्त प्रजा में, जो इस जगत् में है, मुझे ऐसा कोई नहीं लगता, जो मेरे चित्त में विक्षेप पैदा कर सके, मेरे हृदय को विदीर्ण कर सके तथा मेरी टाँगें पकड़ कर मुझे गंगा के पार फेंक सके। फिर भी, आयुष्मन् ! तुम जो प्रश्न करना चाहते हो, करो।" आलवक प्रश्न करता गया, भगवान् उत्तर देते गये। उन प्रश्नों में एक था-"मनुष्य पुनर्जन्म के प्रवाह को कैसे पार करता है ? संसार रूपी अर्णव को-सागर को कैसे तैरता है ? वह किस प्रकार दु:खों का अतिगमन करता है-दुःखों को लांघ जाता है तथा किस भांति परिशुद्ध होता है।" भगवान् ने उत्तर दिया-''मनुष्य श्रद्धा द्वारा पुनर्जन्म के प्रवाह को पार कर जाता १. तिण्णो हु सि अण्णवं महं, किं पुण चिट्ठसि तीरमागओ। अभितुर पारंगमित्तए, सयमं गोयम ! मा पमायए । --उत्तराध्ययन सूत्र १०.३४ २. कथं सुतरति ओघं, कथं सुतरति अण्णवं। कथं सु दुक्खं अच्चेति, कथं सु परिसुज्झति ॥ -सुत्तनिपात १०, आलवक सुत्त ३ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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