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________________ तत्व : आचार : कथानुयोग ] आचार दुर्वचन सहें, रोष न करें वचन के लिए वाग्वाण शब्द का प्रयोग हुआ है । जैसे बाण मर्म का भेदन कर डालता है, वैसे ही तीखा कड़वा वचन - - दुर्वचन हृदय पर बड़ा आघात करता है, किन्तु, संतों की यह अद्भुत गरिमा है, वे उसे आघात नहीं मानते, उससे विचलित नहीं होते, क्षान्तिभाव से उसे सहजाते हैं । फलतः दुर्वचन का विष अपने आप रहजाता है, विस्तार नहीं पाता । दुर्वचन के आघात को जहाँ आघात मान लिया जाता है, प्रतिकार किया जाता है तो निःसन्देह संघर्ष बढ़ जाता है, जिसकी परिणति कभी - कभी भीषण विप्लव के रूप में हो जाती है। आग की छोटी-सी चिनगारी जैसे घास की विपुल राशि को क्षण भर में भस्मसात् कर डालती है, उसी प्रकार छोटा-सा दुर्वचन शान्ति के भाव राज्य को तहस-नहस कर डालता है । अतएव शास्त्रकारों ने स्थान-स्थान पर दुर्वचनों का दुर्वाचनों द्वारा प्रतिकार करने का निषेध किया है । साधना रत जनों को इस दिशा चाहिए | परुष -- - कठोर, दारुण -- भीषण, ग्रामकण्टक - कानों में कांटों की ज्यों चुभाने वाले वचन सुनकर साधक को चुप रहना चाहिए। उन्हें मन में नहीं लाना चाहिए। उन पर कोई ऊहापोह, गौर नहीं करना चाहिए ।' में सदा जागरूक रहना कटुभाषी श्रमणों के परुष - कठोर वचन सुनकर रुष्ट नहीं होना चाहिए, नाराजी नहीं माननी चाहिए। परुष वचन का परुष वचन द्वारा, प्रतिवर्जन नहीं करना चाहिएप्रतिकार नहीं करना चाहिए, प्रत्युत्तर नहीं देना चाहिए। सन्त कभी प्रतिकार नहीं करते । १२५ यथाकाल कार्य - संपादन जीवन में व्यवस्था, नियमन एवं अनुशासन रहे, यह सर्वथा अपेक्षित है, अत्यन्त उपयोगी है । अव्यवस्थित, अनियमित तथा अननुशासित जीवन कभी हितावह और सुखावह नहीं होता । एक श्रमण के जीवन में तो, जो सर्वथा व्रतानुशासन पर टिका होता है, यह अवश्य चाहिए ही । उसका प्रत्येक कार्य समुचित सुनिश्चित समय पर हो। ऐसा होने से ही जीवन सुव्यवस्थित, सुनियमित एवं सन्तुलित रह पाता है, जैसा रहना परम आव कहै । - भिक्षु समय पर बाहर निकले। जिस कार्य के करने का जो समय हो, उसे करने हेतु उसी के अनुसार वह अपने स्थान से गाँव आदि में जाए । वह समय पर प्रतिकान्त होवापस लौटे । अकाल का वर्जन करे - जिस काल में जो कार्य करने का हो, उस काल में वह १. सोच्चा णं फरुसा भासा, दारुणा गाम - कंटगा । तुसिणीओ उवेहेज्जा, ताओ ण मणसी करे ॥ — उत्तराध्ययन सूत्र २.२५ २. सुत्वा रुसितो बहुं वाचं, समणाणं पुथुवचनानं । फरुसेन तेन पतिवज्जा, नहि सन्ता पटिसेन करोति ॥ - सुत्तनिपात १८.१४.१८ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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