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१२४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : ३ सूत्र का तीनों गाथाएँ उद्धृत हुई हैं।' विसवन्त जातक : सम्बद्ध वृत्तान्त
पूर्वकाल का प्रसंग है, वाराणसी में राजा ब्रह्मदत्त राज्य करता था। उस समय बोधिसत्त्व ने विषवैद्य के कुल में जन्म लिया। वे वैद्यक द्वारा अपनी आजीविका चलाते थे।
-दित ग्रामवासी को सर्प ने डंस लिया। सर्प-दष्ट परुष को उसके पारिवारिक जन विष-वैद्य के पास लाये । वैद्य ने उसे देखा और कहा-"क्या ओषधि प्रयोग द्वारा इसका विष दूर करूं अथवा उस सर्प का मन्त्र-बल द्वारा यहाँ आह्वान करूं, जिसने इसे डंसा ? आहत उसी द्वारा डंसे हए स्थान से विष खिचवाऊँ ?"
पारिवारिक जन बोले-"सर्प का आह्वान करें. उसीद्वारा विष खिचवाएं।"
विषवैद्य ने सर्प का आह्वान किया। सर्प आ गया । विषवैद्य ने कहा -"विष को वापस खींचो।"
सर्प बोला-"नहीं, ऐसा नहीं होगा।"
तब विषवैद्य ने लकड़ियाँ मंगवाई, आग जलाई और सर्प से कहा-"यदि विष वापस नहीं खींचते हो तो आग में जलो।"
सर्प बोला-"जिस विष को मैं एक बार उगल चुका, छोड़ चुका, वमन कर चुका, मुझे धिक्कार है, यदि जीवन बचाने के लिए उसे वमन किये हुए को फिर वापस खींच लं। ऐसे जीवन से मौत अच्छी है।"२
विरोध न करें, दुःखी न बनाएँ किसी का विरोध करना, किसी के प्रतिकूल' आचरण करना, किसी भी प्राणी को पीड़ित करना, सताना धर्म के विरुद्ध है, अपने लिए अश्रेयष्कर है।
जैन और बौद्ध दोनों ही धर्मों ने इसका परिवर्जन किया है।
प्रभु-इन्द्रियजयी पुरुष आत्मदोषों को निराकृत कर—मिटाकर मन द्वारा, वचन द्वारा तथा शरीर द्वारा जीवन-पर्यन्त किसी भी प्राणी का विरोध न करे, उसके विरुद्ध आचारण न करे।
मनुष्य को चाहिए कि वह किसी अन्य का दुःख न चाहे, उसे दुःखी बनाना न चाहे -दुःखी न बनाए।
१. दशवकालिक सूत्र २.६.८ २. धिरत्थु तं विसं वन्तं, यमहं जीवित कारणा। वन्तं पच्चावनिस्सामि, मतम्मे जीवितावरं।
--विसवन्तजातक ३.पभू दोसे निराकिच्चा, ण विरुज्झज्ज केणइ । मणसा वयसा चेव, कायसा चेव अंतसो॥
-सूत्रकृतांग १.११. १२ ४. नामस्स दुक्खीमिच्छेय।।
-खुद्दकपाठमेत ६
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