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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ]
आचार लेते हैं। दुलहिन राजीमती भी, जो उत्तम संस्कारवती थी, उसी मार्ग का अवलम्बन करती है, प्रवजित हो जाती है, आत्मश्रेयस् के पथ पर चल पड़ती है।
एक बार का प्रसंग है, वर्षा होने लगती है। रैवतक पर्वत पर जाती श्रमणी राजमती वर्षा से भीग जाती है। उसके वस्त्र गीले हो जाते हैं। पास ही एक गुफा देखकर वह वर्षा से बचने हेतु उसमें चली जाती है। गुफा में घोर अँधेरा था। समुद्र विजय का छोटा राजकुमार रथनेमि, जो श्रमण-जीवन में दीक्षित या, उसी गुफा में पहले से ध्यान कर रहा था। राजीमती अपनी देह से गीले वस्त्र उतार उन्हें सुखाने लगती है। एकाएक बिजली चमकती है। बिजली के प्रकाश में श्रमण रथनेमि की दृष्टि राजमती के निर्वस्त्र शरीर पर पड़ती है। उसके अनुपम सौन्दर्य से वह विमुग्ध हो उठता है। वासना का एक ही बार विरक्ति को पराभूत कर डालता है । रथनेमि राजीमती से काम-याचना करता है।
राजमती की देह में बिजली-सी कौंध जाती है। विरक्त श्रमण को कामान्ध बना देख वह चौंक उठती है। नारीत्व का निर्मल ओज जाग उठता है। राजमती चाहती है, वह रथनेमि को पतन से बचा सके, प्रतिबुद्ध कर सके। उसे सन्मार्ग पर लाने के लिए वह बड़े मामिक वचन बोलती है। उस सन्दर्भ में वह कहती है-"अगन्धन कुल-उच्च कुल-विशेष में उत्पन्न सर्प दुरासद-जिसे झेल पाना, सह पाना अत्यन्त कठिन हो-मयावह अग्नि में गिर पड़ना स्वीकार कर लेते हैं, किन्तु वे वमन किये हुए विष को पुनः खा लेना, निगलना स्वीकार नहीं करते।
"अपयश के आकांक्षी श्रमण रथनेमि !तुम्हें धिक्कार है, जिन काम भोगों का तुमने परित्याग कर दिया, जिन्हें छोड़ दिया, वे तुम्हारे लिए वमन-सदृश हैं । संयम से मुंह मोड़, भोगासक्त बन तुम उन्हें पुन: अपनाना चाहते हो? अपने ही वमन को स्वयं खा जाना चाहते हो? इससे कहीं अधिक अच्छा यह है, तुम मर जाओ।
"मैं महाराज उग्रसैन की आत्मजा हूँ। तुम महाराज समुद्रविजय के पुत्र हो । हम दोनों का उत्तम कुल है। हमें गन्धन-कुल में उत्पन्न सो के सदृश नहीं होना चाहिए, जो अपने वमन किए हुए विष को फिर निगल जाते हैं। हमें तो अगन्धन-कुल में उत्पन्न सों के आदर्श पर चलना चाहिए, जो मर जाते हैं, किन्तु अपना वमन वापस नहीं गिरते, नहीं खाते।"
राजीमती के उद्बोधन का रथनेमि पर जादू का-सा असर होता है। वह आत्मस्थ हो जाता है, मन में आये दुर्विचारों के लिए पश्चात्ताप करता है।
दशवकालिक सूत्र में भी राजीमती द्वारा दिये गये उद्बोधन से सम्बद्ध उत्तराध्ययन
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१. पक्खंदे जलियं जोइं, धूमकेउं दुरासयं ।
नेच्छंति वंतयं भोत्तुं, कुले जाया अगंधणे॥ घिरत्थु तेऽजसीकामी, जो तं जीवियकारणा। वंतं इच्छसि आवेउ, सेयं ते मरणं भवे ॥ अहं च मोगरायस्स, तं चऽसि अंधगवण्हिणो। मा कुले गंधणा होमो, संजमं निहुओ चर ॥
-उत्तराध्ययन सूत्र २२.४२-४४
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