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१२२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : ३ प्रकट रूप में दूसरों के समक्ष या एकान्त में ज्ञानी जनों के विपरीत-उनके आदर्शों के प्रतिकूल कदापि वाणी या कर्म द्वारा आचरण न करे--यह साधक का कर्तव्य है।'
यदि प्राकट्य में या एकान्त में पाप-कृत्य करते हो, अथवा करोगे-भविष्य में वैसा करने का मन:संकल्प लिये हो, तो यह उचित नहीं है, ऐसा कभी मत करो।'
स्वल्प के लिए बहुत को मत गंवाओ
थोड़े लाभ के लिए जो बहुत लाभ को गंवा देता है, उसे बुद्धिमान नहीं कहा जाता। सांसारिक भोगों की प्राप्ति एक बहुत थोड़ा, हीन कोटि का लाभ कहा जा सकता है। मोक्ष या निर्वाण जीवन का परम, सर्वोच्च, सर्वातिशायी लाभ है । भोगों में मोहासक्त बन ऐसे लाभ से वंचित रहना जीवन की सबसे बड़ी भूल है।
- मोक्ष-मार्ग का तिरस्कार-उपेक्षा न करते हुए स्वल्प के लिए-नगण्य, तुच्छ कामभोगों के लिए मोक्ष के आनन्द को, जो अपरिमित है, अनन्त है, मत गँवाओ।
जरा से-तुच्छ से वैषयिक सुख के लिए विपुल-अत्यधिक निर्वाण-सुख को मत छोड़ो, मत गॅवाओ।
वमन को कौन खाए ? कुलीन पुरुष जिसका त्याग कर देते हैं, वह उनके लिए उगले गये वमन के तुल्य अग्राह्य है । वे वमन को, जो अत्यन्त जुगुप्स्य है, खाजाने की अपेक्षा अपने प्राण त्याग देना कहीं अधिक श्रेयस्कर समझते हैं।
जैन तथा बौद्ध दोनों परम्पराओं में यह तथ्य उजागर हुआ है । कथानकों में यद्यपि भिन्नता है, किन्तु, सारभूत कथ्य अभिन्न है।
उत्तराध्ययन : सम्बद्ध घटना
उत्तराभ्ययन सूत्र के बाईसवें अध्ययन में बाईसवें तीर्थंकर भगवान् अरिष्टनेमि, राजकुमारी राजीमती तथा रथनेमि का कथानक है।
राजीमती को ब्याहने हेतु उद्यत अरिष्टनेमि बरातियों के आमिष-भोजन के निमित्त बाड़े में बँधे पशुओं को देखकर संसार से विरक्त हो जाते हैं, श्रमण जीवन स्वीकार कर
१. पडिणीयं य बुद्धाणं, वाया अदुव कम्मुणा। आवी वा जइ वा रहस्से, व कुज्जा कयाइ वि ॥
-उत्तराध्ययन सूत्र १.१७ २. थेरीगाथा २४७ ३. मा एयं अवमन्नंता अप्पेणं लुम्पहा बहुं ।
-आचारांग सूत्र १.३.४.७ ४. मा अप्पकस्स हेतु काम सुखस्स विपुलं जहि सुखं ।
-थेरगाथा ५०८
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