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तत्त्व : आचार:
आचार
१२१ कुशल—सुयोग्य पुरुष प्रमाद न करे । शान्ति तथा मृत्यु का संप्रेक्षण करने वाला देह की क्षणभंगुरता का संप्रेक्षण करने वाला- इन्हें सम्यक्तया-यथार्थतः देखने वाला, समझने वाला प्रमाद न करे।'
मनुष्य को चाहिए, वह आलस्य न करे, प्रमत्त-प्रमादयुक्त न बने।
प्रमाद : अप्रमाद
प्रमाद को कर्म कहा गया है तथा अप्रमाद को अकर्म-संवर कहा गया है।
अप्रमाद अमृत-पद है-अमरत्व का स्थान है तथा अप्रमाद मृत्यु-पद है । अप्रमत्तअप्रमादी वैसे नहीं मरते, जैसे प्रमत्त-प्रमादी मरते हैं।
पाप से बचो
पाप जीवक के उत्थान, विकास तथा सुख का बाधक है। वह दुःख एवं पतन का कारण है। किसी भी कारण पाप का आचरण न किया जाए। इसी में जीवन का कल्याण है।
जो आशंका, भय या लज्जा के कारण पाप-कर्म न करे, यह उसका मुनित्व नहीं है। साम्य-भाव से तत्त्वावेक्षण-तत्त्वालोचन कर आत्मा को पाप से बचाए।
प्रकट रूप में या अप्रकट रूप में किसी भी प्रकार पाप-कर्म न किया जाए।
दूषित कर्म सदा दूषित ही रहते हैं, चाहे उन्हें कोई जाने या न जाने। कोई अपने को कितना ही गोपित कर पापाचरण करे, कर्म-विपाक होने पर उसका अशुभ, संक्लिष्ट फल उसे झेलना ही होता है । अतः साधक को चाहिए, वह प्रकट या अप्रकट किसी भी स्थिति में, किसी भी रूप में पापिष्ठ प्रवृत्तियों से सदा अपने को बचाये रखे।
१. अलं कुसलस्स पमादेणं, संतिमरणं सपेहाए, भेउरधम्म सपेहाए णालं पास, अलं एतेहिं ।
-आचारांग सूत्र १.२.४.५ २. मा तं आलसं पमत्त बन्धु ।
-थेरगाथा ४१४ ३. पमायं कम्ममाहंसु, अप्पमायं तहाऽवरं।
-सूत्रकृतांग १.८.३ ४. अप्पमादो अमत-पदं, पमादो मच्चुनो पदं । अप्पमत्ता न मीयंति, ये पमत्ता यथा मता ॥
-धम्मपद २.१ ५. जमिणं अण्णमण्णवितिगिंछाए पडिलेहाए ण करेति पावं कम्मं किं तत्थ मुणी कारणं सिया। समयं तत्थुवेहाए अप्पाणं विप्पसादए।
-आचारांग सूत्र १.३.३.१-२ ६. या कासी पापकं कम्मं आवि वा यदि वा रहो।
-थेरगाथा २४७
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