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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
स्नेह के बन्धन तोड़ दो
स्नेह बन्धन है । वह राग प्रसूत है । जब तक वह बना रहता है, साधक का मार्ग निष्कण्टक, प्रशस्त नहीं होता । वह मुक्त नहीं हो सकता । क्लेश – परम्परा से छूटने के लिए इस बन्धन को उच्छिन्न करना ही होगा । इस बन्धन के टूटते ही जीवन निर्लेप एवं निर्मल बन जाता है । साधक में आत्मबल का अभ्युदय होता है। उसके चरण साधना पथ पर सत्वर गतिशील हो जाते हैं ।
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जैन एवं बौद्ध दोनों ही परम्पराओं में यह स्वर मुखरित हुआ है ।
शरद् ऋतु का कमल जैसे जल से अलिप्त रहता है, स्नेह बन्धन को उच्छिन्न कर— तोड़कर उसी प्रकार निर्लेप बन जाओ । स्नेह का सर्वथा परिवर्जन कर संयम के मार्ग पर बढ़ते जाओ, क्षण मात्र भी प्रमाद मत करो ।
शरद् ऋतु के कमल की ज्यों अपने स्नेह - - रागात्मक भाव को उच्छिन्न कर डालो । कमल के सदृश निर्लिप्त बन जाओ । बुद्ध द्वारा देशित - उपदिष्ट इस मार्ग का जो शान्ति का मार्ग है, वह करो - वृद्धि करो, विकास करो।
प्रमाद मत करो
जीवन में जो उत्कर्ष की ओर जाना चाहता है, उसे प्रमाद कभी नहीं करना चाहिए । प्रमाद करने वाला कदापि अपना उत्थान, उन्नति नहीं कर सकता । अत: क्या जैन और क्या बौद्ध सभी शास्त्रकारों ने प्रमाद की बड़ी भर्त्सना की है तथा अप्रमाद की अतीव श्लाघा की है ।
उठो, प्रमाद मत करो ।
उठो, प्रमाद मत करो । सुचरित - सुन्दर रूप में सेवित धर्म का आचरण करो । उठो, बैठो, सोये रहने से — प्रमाद में पड़े रहने से कोई लाभ नहीं है ।
सिणेहमप्पणी,
कुमुयं सारइयं व पाणियं ।
से सव्व सिणेहवज्जिए, समयं गोयम ! मा पमायए ।
१. वुच्छिद
— उत्तराध्ययन सूत्र १०.२८ कुमुदं सारयिक' व पाणिना । निब्बानं सुगतेन देसितं ॥ -धम्मपद, मार्ग वर्ग १३
२. उच्छिन्द सिने हमत्तनो, सन्तिमग्गमेव बृहय,
३. उट्ठिते णो पमादए ।
४. उत्तिट्ठे नप्पमज्जेय्य, धम्मं सुचरितं चरे । -धम्मपद १३.२
५. उट्ठहथ निसीदथ, को अत्थो सुपिनेन वो ।
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[ खण्ड : ३
- आचारांग सूत्र १.५.२.१
- सुत्तनिपात २.२२.१
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