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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ]
आचार
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वन में मस्ती
जराज की ज्यों अनासक्त भाव से एकाकी विचरण करे।'
साधक यतना से कार्य करे
जीवन के प्रत्येक व्यवहार में सावधानी, संयम, जागरूकता और सयत्नता का भाव रहे, यह साधक के लिए अति आश्यक है। श्रमण-संस्कृति में इस पर बड़ा बल दिया गया है।
साधक को चाहिए, वह यतनापूर्वक-जागरूकता के साथ चले, खड़ा हो, बैठे, सोए भोजन करे तथा संभाषण करे। यों जागरूकता या सावधानी के साथ भोजन करता हआ, संभाषण करता हुआ, अन्यान्य कार्य करता हुआ वह पाप-संचय नहीं करता।
साधक को यतनापूर्वक चलना चाहिए, खड़े होना चाहिए, बैठना चाहिए एवं सोना चाहिए।
जो चलते हुए, खड़े होते हुए, बैठते हुए या सोते हुए अपने चित्त को आत्मस्थसुसंयत एवं सुस्थिर रखता है, वह शान्ति प्राप्त करता है ।
१. स चे लभेथ निपकं सहायं,
सद्धि चरं साधुविहारिधीरं। अभिभुय्य सब्बानि परिस्सयानि, चरेय्य तेन'त्त मनो सतीमा ॥ नो च लभेथ निपकं सहायं, सद्धि चरं साधु विहारिधीरं। राजा'व रहें विजितं पहाय, एको चरे मातङ्ग' र व नागो॥ एकस्स चरितं सेय्यो नत्थि बाले सहायिता, एको चरे न च पापानि कयिरा, अप्पोस्सुको मातङ्ग' रजेव नागो।।
-धम्मपद, नागवर्ग 8-११ २. जयं चरे चिठे, जय भासे जयं सए। जयं भुजंतो मासंतो, पावं कम्मं न बंधई॥
-दशवकालिक सूत्र ४.८ ३. यतं चरे यतं तिठे, यतं अच्छे यतं सये।
-सुत्तनिपात ४.६ ४. चर वा यदि वा तिठें, निसिन्नो उद वा सयं । अज्झत्थं समयं चित्तं, सन्तिमेवाधिगच्छति ॥
-सुत्तनिपात ३.१७
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