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________________ ११५ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : ३ देते हैं- साधक यतनापूर्वक - जागरूकता से, सावधानी से चले, यतनापूर्वक खड़ा हो, यतनापूर्वक बैठे, यतनापूर्वक सोए, यतनापूर्वक खाए, यतनापूर्वक बोले । ऐसा करता हुआ वह पाप कर्म नहीं बांधता ।" भिक्षु यत्नपूर्वक चले, यत्नपूर्वक खड़ा हो, यत्नपूर्वक बैठे, यत्नपूर्वक सोए, यत्नपूर्वक अपनी देह को सिकोड़े और यत्नपूर्वक उसे फैलाए । अकेले ही बढ़ते चलो 1 श्रमण संस्कृति का पाया श्रम, पुरुषार्थ एवं सतत उद्यमशीलता पर टिका है। साधना एवं संयम की वरणीय यात्रा में अच्छा होता है, यदि कोई सुयोग्य सहयोगी, साथी मिल जाए यदि वैसा नहीं हो पाता तो संयम यात्रा के महान् यात्री के लिए कोई चिन्ता की बात नहीं होती । वह अपनी मंजिल की ओर अविश्रान्त रूप में बढ़ता ही जाता है। इस आशय के उल्लेख जो प्राप्त होते हैं, बड़े प्रेरक हैं यदि गुणाधिक गुणों में अपने से अधिक बढ़ा चढ़ा, अथवा गुणों में अपने समान, निपुण - सुयोग्य सहायक न मिले तो साधक पापों का विवर्जन करता हुआ पाप-कृत्यों से सदा दूर रहता हुआ, कामभोगों में अनासक्त रहता हुआ, एकाकी ही विचरण करता जाए साधना की मंजिल पर आगे बढ़ता जाए । यदि निःपक्व - परिपक्व बुद्धियुक्त, साथ में धैर्यपूर्वक विहार करने वाला सहायक, सहचर प्राप्त हो जाए तो साधक सभी परिषहों— कष्टों - विघ्नों का अभिभव कर — उन्हें अपास्त कर, निरस्त कर प्रसन्नचित्त होता हुआ उसके साथ विहार करे । यदि परिपक्व बुद्धियुक्त, साथ में धैर्यपूर्वक विहार करने वाला सहायक प्राप्त न हो तो राजा जैसे अपने उस राष्ट्र को, जो दूसरों द्वारा हथिया लिया गया हो, छोड़कर अकेला चल देता है, उसी प्रकार साधक गंभीर गजराज की ज्यों अकेला ही अपने पथ पर निकल पड़े, आगे बढ़ता जाए । एकाकी विहार — विचरण किया जाए, यह श्रेयस्कर है, किन्तु, बाल- अज्ञानी को— मूर्ख को सहायक के रूप में पाना श्रेयस्कर नहीं है । अत: साधक पापों से बचता हुआ, १. जयं चरे जयं चिट्ठे, जयमासे जयं सए । जयं भुजंतो भासतो, पावं कम्मं न बंधई ॥ - दशवैकालिक सूत्र ४.८ २. यतं चरे यतं तिट्ठे, यतं अच्छे यतं सये । यतं सम्म भिक्खू, यतमेनं पसारए ॥ - इतिवृत्तक ४.१२ ३. न वा लभिज्जा निउणं सहाय, गुणाहियं वा गुणओ समं वा । एगो वि पावाई विवज्जयंतो, विहरेज्ज कामेसु असज्जमाणो ॥ Jain Education International 2010_05 -- उत्तराध्ययन सूत्र ३२.५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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