SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 177
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार ११७ तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] सोचकर उस जागरणशील पुरुष को चाहिए, वह भारण्ड पक्षी की ज्यों सदा प्रमादशून्य होकर विचरण करे । ' जो प्रमत्त जनों के मध्य अप्रमत्त रहता है, सुप्त जनों के बीच जागरित रहता है, वह उत्तम मेधाशील - प्रज्ञावान पुरुष जीवन की साधना की मंजिल पर वैसे ही आगे बढ़ता जाता है, जैसे स्फूर्तिशील अश्व दुर्बल – अस्फूर्त अश्वों से आगे निकल जाता है । " भिक्षु सदा जागरित रहे । वह सावधानतापूर्वक, समाधिपूर्वक - संयमपूर्वक विचरण करे । अमुनि - असाधु सदा सुप्त रहते हैं -- सोये रहते हैं— अज्ञान की नींद में ऊँघते रहते हैं मुनि सदा जागते रहते हैं ।" धर्मी - धर्मनिष्ठ पुरुषों का जागरित रहना श्रेयस्कर है, अधर्मी - अधार्मिक पुरुषों का सोये रहना श्रेयस्कर है । साधु -- साधनारत पुरुष सुप्त होता हुआ भी - सोया हुआ भी जागता रहता है । ६ सतत जागरू साधना पथ पर आरूढ साधक का जीवन अत्यन्त संघा हुआ, संयम पर कसा हुआ जागृतिमय जीवन । उसमें यदि जरा भी शैथिल्य, असावधानी, अव्यवस्था आजाए तो किया कराया सब चौपट हो जाए। अतः यह सर्वथा अपेक्षित है कि साधक क्षणभर भी जागरूक न रहे । आर्हत एवं सौगत - दोनों परम्पराओं में इसे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना गया है । साधक कैसे चले, कैसे खड़ा हो, कैसे बैठे, कैसे सोए, कैसे खाए, कैसे बोले, जिससे पाप-कर्म का बन्ध न हो— शिष्य द्वारा किये गये इस प्रश्न के समाधान में आचार्य उत्तर १. सुत्ते यावि पडिबुद्धजीवी, णो वीससे पंडिए आसु पण्णे । घोरा मुहुत्ता अबलं सरीरं, भारंडपक्खीव चरेऽप्पमत्ते ॥ - उत्तराध्ययन सूत्र ४.६ २. अप्पमत्तो पत्ते, सत्तेसु बहुजागरों । अबलस्सं' व सीधस्सो हित्वा याति सुमेधसो ॥ — धम्मपद ४.६ ३. जागरी वस्स भिक्खवे भिक्खु विहरेय्य सम्मजानो समाहितो । - इतिवृत्तक २.२० ४. सुत्ता अमुणी मुणिणो सया जागरंति । - आचारांग सूत्र १.३.१.१ ५. जागरिया घम्मीणं अहम्मीणं च सुत्ता सेया । ६. साधु जागरतं सुत्तो । Jain Education International 2010_05 - बृहत्कल्पभाष्य ३३.८७ - सुत्तपिटक ७.४१४.१४१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy