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आचार
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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ]
सोचकर उस जागरणशील पुरुष को चाहिए, वह भारण्ड पक्षी की ज्यों सदा प्रमादशून्य होकर विचरण करे । '
जो प्रमत्त जनों के मध्य अप्रमत्त रहता है, सुप्त जनों के बीच जागरित रहता है, वह उत्तम मेधाशील - प्रज्ञावान पुरुष जीवन की साधना की मंजिल पर वैसे ही आगे बढ़ता जाता है, जैसे स्फूर्तिशील अश्व दुर्बल – अस्फूर्त अश्वों से आगे निकल जाता है । "
भिक्षु सदा जागरित रहे । वह सावधानतापूर्वक, समाधिपूर्वक - संयमपूर्वक विचरण
करे ।
अमुनि - असाधु सदा सुप्त रहते हैं -- सोये रहते हैं— अज्ञान की नींद में ऊँघते रहते हैं मुनि सदा जागते रहते हैं ।"
धर्मी - धर्मनिष्ठ पुरुषों का जागरित रहना श्रेयस्कर है, अधर्मी - अधार्मिक पुरुषों का सोये रहना श्रेयस्कर है ।
साधु -- साधनारत पुरुष सुप्त होता हुआ भी - सोया हुआ भी जागता रहता है । ६
सतत जागरू
साधना पथ पर आरूढ साधक का जीवन अत्यन्त संघा हुआ, संयम पर कसा हुआ जागृतिमय जीवन । उसमें यदि जरा भी शैथिल्य, असावधानी, अव्यवस्था आजाए तो किया कराया सब चौपट हो जाए। अतः यह सर्वथा अपेक्षित है कि साधक क्षणभर भी जागरूक न रहे ।
आर्हत एवं सौगत - दोनों परम्पराओं में इसे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना गया है ।
साधक कैसे चले, कैसे खड़ा हो, कैसे बैठे, कैसे सोए, कैसे खाए, कैसे बोले, जिससे पाप-कर्म का बन्ध न हो— शिष्य द्वारा किये गये इस प्रश्न के समाधान में आचार्य उत्तर
१. सुत्ते यावि पडिबुद्धजीवी, णो वीससे पंडिए आसु पण्णे । घोरा मुहुत्ता अबलं सरीरं, भारंडपक्खीव चरेऽप्पमत्ते ॥ - उत्तराध्ययन सूत्र ४.६
२. अप्पमत्तो पत्ते,
सत्तेसु बहुजागरों ।
अबलस्सं' व सीधस्सो हित्वा याति सुमेधसो ॥
— धम्मपद ४.६
३. जागरी वस्स भिक्खवे भिक्खु विहरेय्य सम्मजानो समाहितो । - इतिवृत्तक २.२०
४. सुत्ता अमुणी मुणिणो सया जागरंति ।
- आचारांग सूत्र १.३.१.१ ५. जागरिया घम्मीणं अहम्मीणं च सुत्ता सेया ।
६. साधु जागरतं सुत्तो ।
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- बृहत्कल्पभाष्य ३३.८७
- सुत्तपिटक ७.४१४.१४१
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