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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : ३
समय जा रहा है
जीवन में समय का मूल्य सर्वोपरि है। न केवल साधक को वरन् प्रत्येक मनुष्य को चाहिए कि वह अपन। समय पवित्र कार्यों में, धार्मिक कृत्यों में लगाए। इस ओर वह सदा जागरूक रहे, जरा भी प्रमाद न करे । इस तथ्य पर सर्वत्र बहुत जोर दिया गया है। श्रमण भगवान् महावीर तथा भगवान् बुद्ध ने इस सन्दर्भ में जो उद्गार व्यक्त किये, न केवल भावात्मक, किन्तु, शब्दात्मक दृष्टि से भी उनमें बड़ा साम्य है।
जो-जो रातें व्यतीत हो जाती हैं, वे वापस नहीं लौटतीं । जो मनुष्य अधर्म करता रहता है, उसकी रातें व्यर्थ जाती हैं, निरर्थक बीतती हैं ।
जोजो रातें व्यतीत हो जाती हैं, वे वापस नहीं लौटतीं । जो मनुष्य धर्माचरण करता रहता है, उसकी रातें सफल जाती हैं, सार्थक बीतती हैं।'
कालाव्यय हो रहा है-समय बीता जा रहा है, रातें त्वरा कर रही हैं. अतिशीघ्र भागी जा रही हैं। प्राप्त भोग नित्य नहीं हैं, सदा नहीं रहते। फल-क्षय हो जाने पर जैसे पक्षी वृक्ष को छोड़ जाते हैं, उसी प्रकार काम-भोग क्षीणभाग्य पुरुष को छोड़ जाते हैं ।
__ तुम सम्बुद्ध बनो-सम्यक्तया समझो। क्यों नहीं समझ रहे हो? मनुष्य भव व्यतीत हो जाने पर सम्बोधि-सद्बोध प्राप्त होना सचमुच दुर्लभ है। बीती रातें वापस नहीं लौटतीं। मनुष्य जीवन पुन: सुलभ नहीं है-बार-बार प्राप्त नहीं होता।'
समय चला जा रहा है। रात्रियां व्यतीत हो रही हैं। जीवन उत्तरोत्तर घटता जा रहा है, बीतता जा रहा है। मृत्यु की विभीषिका विद्यमान है । उसे देखते हुए मनुष्य को चाहिए कि वह पुण्य कार्य करे, जो सुखप्रद हैं।
समय चला जा रहा है । रात्रियां व्यतीत हो रही हैं। जीवन उत्तरोत्तर घटता जा रहा है, बीतता जा रहा है । मृत्यु की विभीषिका विद्यमान है । जो पुरुष शान्ति चाहता है, उसे यह सब देखते हुए चाहिए कि वह भोगों का परित्याग कर दे।
जागते रहो
मोह नींद है, प्रमाद है, भयजनक है। उसमें कभी ग्रस्त नहीं होना चाहिए । सदा अपने स्वरूप का मान रखते हुए सावधान रहना चाहिए। यह जागरण है, उत्थान का पथ है। शास्त्र कारों ने जन-जन को इस सम्बन्ध में बड़े प्रेरक शब्दों में उद्बोधित किया है।
मोह की नींद में सोये हुए सांसारिक जनों के बीच प्रखर प्रज्ञाशील पुरुष सदा जागता रहता है। वह प्रमाद में विश्वास नहीं करता। काल भयावह है, शरीर दुर्बल है। यह
१. उत्तराध्ययन सूत्र १४.२४-२५ २. उत्तराध्ययन सूत्र १३.३१ ३. सूत्रकृतांगसूत्र १.७.११ ४. संयुत्त निकाय, पहला भाग, अच्चेति सुत्त १.१.४
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