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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] आचार ११५ है-१. मैत्री द्वारा--जिस मनुष्य के प्रति मन में क्रोध आया हो, क्षोभ उत्पन्न हुआ हो, उसके प्रति मित्रता का भाव रखो। २. करुणा द्वारा-जिसके प्रति मन में क्रोध हो, क्षोभ हो, उसके प्रति अपने में करुणा भाव उत्पन्न करो। ३. मुदिता द्वारा—जिसके प्रति क्रोध एवं क्षोभ हो, उसके प्रति मन में मुदिता-प्रसन्नता–प्रमोद की भावना लाओ। ४. उपेक्षा द्वारा–जिसके प्रति क्रोध एवं क्षोभ हो, उसके प्रति मन में तटस्थता का भाव जगाओ। ५. कर्मों के स्वामित्व की भावना द्वारा-जिसके प्रति क्रोध हो, क्षोभ हो, उसके सम्बन्ध में यों चिन्तन करो-जो सत्, असत् कर्म करता है, वही उनका शुभ, अशुभ फल भोगता है। अपने कर्मों का वही स्वयं उत्तरदायी है।"१ एक समय का प्रसंग है, भगवान तथागत अंगदेश के अश्वपुर नामक नगर में विरा. जित थे। उन्होंने भिक्षुओं को संबोधित करते हुए कहा-“भिक्षुओ! जैसे निर्मल, ठंडे, मीठे जल से आपूर्ण, सुन्दर, भव्य घाट युक्त पुष्करिणी हो, तेज धूप से पीड़ित परिश्रान्त, थका-मांदा, प्यासा एक पुरुष पूर्व से आकर उसका जल पीए, प्यास मिटाए, थकावट दूर करे, पश्चिम से, उत्तर से, दक्षिण से भी वैसे ही कोई पुरुष आएं पुष्करिणी का शीतल जल पीकर शान्त हों, तृप्त हों, उसी प्रकार भिक्षुओ ! एक क्षत्रियकुलोत्पन्न पुरुष गृह-त्याग कर प्रवजित हो, तथागत द्वारा उपदिष्ट धर्म को स्वीकार कर मैत्री, करुणा, मुदिता तथा उपेक्षाभावना द्वारा अनुप्राणित हो, तो उसे आध्यात्मिक शान्ति, आत्म-तृप्ति प्राप्त होती है। क्षत्रियकुलोत्पन्न पुरुष की ज्यों ब्राह्मणकुल में उत्पन्न, वैश्यकुल में उत्पन्न, शूद्रकुल में उत्पन्न अथवा किसी भी कुल में उत्पन्न पुरुष तथागत-देशित धर्म को स्वीकार कर मैत्री करुणा, मुदिता एवं उपेक्षा-भावना से अनुभावित होता हुआ वैसी ही आध्यात्मिक-शान्ति सन्तृप्ति प्राप्त करता है।"२ भगवान् तथागत ने भिक्षुओं को सम्बोधित कर कहा-"भिक्षुओ ! मैत्री से भावित–मैत्री-भावना से अनुप्राणित होने से, अभ्यस्त होने से उसका सतत अभ्यास करने से-सुखपूर्वक विहार-संयम-यात्रा का संचरण होता है। “भिक्षुओ ! करुणा से भावित-करुणा-भावना से अनुप्राणित होने से, अभ्यस्त होने से-उसका सतत अभ्यास करने से सुखपूर्वक विहार-संयम-यात्रा का संचरण होता है। भिक्षओ ! मुदिता से भावित-मुदिता-भावना से अनुप्राणित होने से, अभ्यस्त होने से- उसका सतत अभ्यास करने से सुखपूर्वक विहार-संयम-यात्रा का संचरण होता है। "भिक्षओ ! उपेक्षा से भावित-उपेक्षा-भावना से अनुप्राणित होने से, अभ्यस्त होने से-सतत अभ्यास निरत रहने से सुखपूर्वक विहार-संयम-यात्रा का संचरण होता है। १. अंगुत्तरनिकाय, पाणच्चक निपात १६१ २. मज्झिमनिकाय १.४.१०, चूल अस्सुपुर सुत्तन्त ३. संयुत्त निकाय ४४.७.६-६ मेत्ता सुत्त करुणा सुत्त, मुदिता सुत्त, तथा उपेक्खा सुत्त Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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