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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ]
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बोधिसत्त्व बड़े हैरान थे, क्या किया जाए, कुदाली मन से निकलती ही नहीं । सातवीं बार उन्होंने कुदाली ली। नदी के तट पर गये । हाथी के सदृश बल से उन्होंने उसे अपने शिर पर से तीन बार घुमाया तथा आँखें बन्द कर उसको नदी की धारा के बीच फेंक दिया ताकि फिर वह स्थान कभी याद ही न रहे। ऐसा कर बोधिसत्त्व ने तीन बार गर्जना की- " मैंने जीत लिया, मैंने जीत लिया, मैंने जीत लिया ।"
आचार
तभी का प्रसंग है, वाराणसी- नरेश सीमान्त प्रदेश का उपद्रव, विद्रोह शान्त कर शत्रुओं को विजय कर वहाँ आकर, नदी पर स्नान कर, सुन्दर वस्त्र, आभूषण धारण कर गजारूढ़ हो उधर से निकला । बोधिसत्त्व के शब्द उसके कानों में पड़े। उसने उन्हें अपने पास बुलाया और कहा - " मैं तो सीमान्त प्रदेश के शत्रु-राजाओं को जीत कर आ रहा हूँ, तुमने किसे जीता ? "
बोधसत्त्व ने कहा—“राजन् ! मात्र हजारों-लाखों संग्रामों में विजय प्राप्त कर लेने में जीवन की सार्थकता नहीं फलती । तुमने सीमान्त प्रदेश के राजाओं को तो जीता, यह सही है, किन्तु, अपने चैतसिक विकारों को अब तक नहीं जीत पाये हो । मैंने उन्हें जीत लिया है ।" यों कहकर उन्होंने नदी की ओर देखा । जलावलम्बी ध्यान से उद्भूत होने वाला ध्यान उन्हें उत्पन्न हुआ - विशिष्ट ध्यान ऋद्धि प्राप्त हुई । वे आकाश में अधर अवस्थित हुए । यह बुद्ध-लीला थी । वहीं से राजा को धर्म का उपदेश देते संग्राम में हजारों-हजारों (१००० X १००० = १००००० ०००) योद्धाओं उससे कहीं उत्तम --- उत्कृष्ट संग्राम - विजेता वह है, जो आत्मा को लेता है ।""
हुए कहा- "जो को जीत ले, अपने आपको जीत
धम्मपद ८.४ में यह गाथा प्राप्त है ।
मैत्री और निर्वैर-भाव
संसार में सब प्राणी जीना चाहते हैं, सुख चाहते हैं। किसी को यह अधिकार नहीं है कि वह किसी के लिए कष्टप्रद हानिकर सिद्ध हो। उसे सबके साथ मित्र की ज्यों सद्व्यवहार करना चाहिए। किसी के भी प्रति अमित्रता - शत्रुता का भाव नहीं रखना चाहिए ।
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एक धर्मिष्ठ पुरुष कामना करता है- "सब प्राणियों के प्रति मुझे मित्र भाव रखना चाहिए -- सबके साथ मुझे मित्रता से रहना चाहिए ।""
इस जगत् में सभी प्राणी मेरे मित्र हैं- मैं उन्हें अपने मित्र सममूं । ऊर्ध्व-लोक,
१. यो सहस्सं सहस्सेन, सङ्ग्रामे मानुसे जिने ।
एकं च जेय्यमत्तानं स वे सङ्गामजुत्तमो ॥
२. मेत्तिं भूहि कप्पए ।
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— कुद्दाल जातक ७०
— उत्तराध्ययन ६.२
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