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११२ आगम और त्रिपिटक :ए
[खण्ड:३ वृद्धों पुरुषों की नित्य सेवा करता है, उसका धर्म, आयु, वर्ण, सुख एवं बल अभिवद्धित होता है-उन्नत होता है।'
प्रात्मविजय : महान् विजय काम, क्रोध, राग, द्वेष एवं लोभ प्रसूत दुर्बलताओं के कारण आत्मा में विपथगामिता आती है, लक्ष्य छूट जाता है। लक्ष्य विहीन कहाँ से कहाँ चला जाए, कौन कहे। ये आत्मा के आभ्यन्तर शत्रु है, जो वस्तुतः बड़े दुर्जेय हैं, जिन्हें जीतने की प्रेरणा धर्म देता है। उन्हें जीतने में बहुत बड़ी अन्तः-शक्ति चाहिए। बड़ा दुष्कर कार्य यह है, किन्तु, एक श्रमण के लिए यही आचारणीय है, जिस हेतु उसे बड़े साहस और उत्साह से जूझना होता है।
एक ऐसा पुरुष है, जो दुर्जय संग्राम में दस लाख योद्धाओं पर विजय प्राप्त करता है, दूसरा ऐसा पुरुष है, जो केवल अपनी आत्मा को-अपने आपको जीतता है-अपनी दुर्बलताओं का पराभव करता है। इन दोनों में आत्म-विजेता का दर्जा ऊँचा है। उसकी विजय परम विजय है ।
कुद्दाल जातक: सम्बद्ध कथानक
वाराणसी में राजा ब्रह्मदत्त राज्य करता था। उस समय बोधिसत्त्व वहाँ एक शाकसब्जी पैदा करने वाले-माली के घर उत्पन्न हुए। माली बहुत गरीब था। कुदाली से जमीन पोली करना, जमीन खोदना क्यारियां बनाना, शाक-सब्जी पैदा करना आदि द्वारा वे अपने पिता की मदद करते । कुदाली उनके इन कार्यों में बड़ी सहायक थी। वे उसे बड़े ध्यान से रखते। कुदाली के कारण वे कुदाल पंडित के नाम से प्रसिद्ध थे।
संयोग ऐसा ही था, माली का दारिद्रय नहीं गया। बोधिसत्त्व ने सोचा-इतना करने पर भी जहाँ दरिद्रता नहीं मिटती; अच्छा हो, उस संसार का त्याग ही कर दिया जाए। उन्हें वैराग्य हुआ। प्रवजित होने की तीव्र उत्कण्ठा उत्पन्न हुई । सदा उपयोग में लेते रहने से कुदाली के प्रति उनके मन में लगाव था। उसे अपनी आँखों से ओझल करने हेतु उन्होंने किसी जगह छिपा दिया। ऋषि-प्रव्रज्यानुसार वे प्रवजित हो गये।
प्रव्रजित तो हो गये, किन्तु, कुदाली मन में अड़ी रही, मन से निकली नहीं। वे वापस गृहस्थ हुए। उस कुदाली को लेकर फिर कार्य में जुट गये। वैराग्य भाव पुनर्जागरित हा। सुदाली को कहीं छिपाया, पुनः प्रवजित हुए, किन्तु, कुदाली के प्रति मन में जमी ममता फिर उभरी । पुनः गृहस्थ हुए। यों छः बार हुआ।
१. अभिवादनसीलस्स, निच्चं बद्धापचायिनो। चत्तारो धम्मा वड्ढन्ति, आयु वण्णो सुखं बलं ।
-धम्मपद ८.१० २. जो सहस्सं सहस्साणं, संग्गामे दुज्जए जिणे । एगं जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जओ।।
-उत्तराध्ययन सूत्र ६.३४
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