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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ]
आचार
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जीवन की अभिकांक्षा-मैं जीता रहूँ-ऐसी अभीप्सा--कामना नहीं करनी चाहिए और न मरण की ही-मैं मरजाऊं-ऐसी वाञ्छा करनी चाहिए। साधक जीवन तथा मृत्यु दोनों में असज्ज-संगवर्जित- अनासक्त रहे।
जो आचार्य की, उपाध्याय की शुश्रूषा करते हैं उन्हें सुनते हैं, उनकी सेवा करते हैं, उनके वचन का अनुसरण करते हैं; पानी से सींचे जाते, अतएव उत्तरोत्तर बढ़ते जाते वृक्षों को ज्यों उनकी शिक्षा-उन द्वारा सीखे हुए सद्गुण सदा बढ़ते जाते हैं।'
यदि आत्मा को-अपने आपको जीत लिया तो यह उसके लिए-आत्मजयी मानव के लिए सर्वथा श्रेयस्कर है । औरों को जीतने से क्या बनेगा।
जो धर्मजीवी अर्हत् के शासन का-आज्ञा का, धर्म का कलुषित दृष्टि से, दूषित बुद्धि से प्रतिक्रोश-निन्दा, अवहेलना करता है, बांस के फल जैसे उसके आत्मक्षय के लिए -बांस के नाश के लिए फलते हैं, उसी प्रकार उसके ये उपक्रम उसके नाश के लिए हैं।
जैसे केले के वृक्ष को उसके फल नष्ट कर देते हैं, उसी प्रकार अपने अन्तरतम में . उत्पद्यमान लोभ, द्वेष तथा मोह जैसे दुर्गुण पापचेता पुरुष को नष्ट कर डालते हैं ।
न मैं मृत्यु-मर जाने का अभिनन्दन करता हूँ----सोल्लास स्वागत करता हूँकामना करता हूँ और न मैं जीवन का-जीते रहने का अभिनन्दन करता है।
जो अभिवादनशील-बड़ों को अभिनमन करता है, उनका आदर करता है,
१. जीवियं णाभिकंखेज्जा, मरणं पो वि पत्थए। दुहतो वि ण सज्जेज्जा, जीविते मरणे तहा ।।
~~आचारांग सूत्र १.८.८.४ २. जे आयरिय-उवज्झायाणं, सुस्सूसा वयणं करा। तेसिं सिक्खा पवड्ढंति, जलसित्ता इव पायवा॥
-दशवकालिक सूत्र ६.२.१२ ३. अत्ता ह वे जित सेय्यो, या चायं इतरा पजा। अत्तदन्तस्स पोसस्स, निच्चं सोतचारिनो ।
-धम्मपद ८.५ ४. यो सासनं अरहतं अरियानं धम्मजीविनं।
पटिक्कोसति दुम्मेधो, दिष्ठिं निस्साय पापिकं । फलानि कट्ठकस्सेव, अत्तहाय फुल्लति ॥
-धम्मपद १२.८ ५. लोभो दोसो च मोहो च, पुरिसं पापचेत सं। हिंसन्ति अत्तसंभूता, तचसारं व सम्फलं ॥
-सुत्तनिपात ३.१ ६. नाभिनंदामि मरणं, नाभिनंदामि जीवितं ।
-थेरगाथा ६०६
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