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________________ ११० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड:३ हो सकता । तृष्णातुर पुरुष के लिए ये बाह्याचार कभी आत्मशुद्धिकारक नहीं हो सकते।' जलाभिसेचन द्वारा-जल में नहाने से व्यक्ति पापों से छूट जाता है, ऐसा कौन कहता है ? यह अज्ञात का—जिसे यथार्थ तत्त्व ज्ञात नहीं है, ऐसे अज्ञानी पुरुष का अनजान के प्रति-अज्ञानी के प्रति उपदेश है। यदि यह यथार्थ हो तो फिर मेंडक, कछुए, मछलियां सुसुमार आदि सभी जलचर जन्तु निःसन्देह स्वर्ग जायेंगे।' अभ्युदय के सोपान क्रोध, अहंकार, लोभ, द्वेष आदि का, वर्जन सदाचरण एवं विनय जीवन में अभ्युदय एवं समुन्नति के हेतु हैं । उनका अवलम्बन कर व्यक्ति निरन्तर विकास करता जाता है। निश्चय ही ये अभ्युदय के सोपान हैं। ___ आत्मा यद्यपि दुर्जय है, किन्तु उसके जीत लिये जाने पर क्रोध, मान, माया तथा लोभ- सब जीत लिये जा ते हैं-ये सब अपगत हो जाते हैं। जो ज्ञानेप्सु स्तंभ--उद्दण्डता-ढीढपन, क्रोध, मद--अहंकार तथा प्रमाद के कारण गुरु की सन्निधि में विनय-शिष्ट आचार, विनम्रता आदि नहीं सीखता, उसका अविनय, अशिष्टाचरण उसके ज्ञानादि गुणों के नाश का उसी प्रकार कारण बनता है, जिस प्रकार बांस का फल बांस के नाश का कारण होता है-फल जाने पर बांस नष्ट हो जाता है। १.न नग्गचरिया न जटा न पका, नानासका थण्डिलसायिका वा। रजो व जल्लं उक्कटिकप्पधानं. सोधोन्ति मच्चं अवितिण्ण कख ॥ -धम्मपद १०.१३ २. को नु मे इदमक्खासि, अनातस्स अजानतो। नदकाभिसेचना नाम, पापकम्मा पमुच्चति ।। सग्गं नूनं गमिस्संति, सव्वे मण्डूककच्छपा । नगडा च सुंसुमारा च, ये चचे उदके चरा ॥ -थेरगाथा २४०-४१ ३. पंचिंदियाणी कोहं, माणं मायं तहेव लोमं च । दुज्जयं चेव अप्पाणं, सत्वमप्पे जिए जियं ॥ --उत्तराध्ययन सूत्र ६.३६ ४. थंमा व कोहा व मयप्पमाया, गुरुस्सगासे विणयं ण सिक्खे । सो चेव उ तस्स अभूभावो, फलं व कीयस्स वहाय होइ॥ --दशवफालिक सूत्र ६.१.१ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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