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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग] आचार मग-धर्म धारण करे, नग्न रहे, जटा रखे अथवा वस्त्र-खंडों को जोड़-जोड़कर बनाई गई कन्या धारण करे, मस्तक मुंडाये रहे-~इनसे कुछ नहीं सधता। ये उसका त्राण नहीं कर सकते-उसे दुर्गति से नहीं बचा सकते, नहीं छुड़ा सकते। आत्मप्रसन्नता-आत्मोज्ज्वलताकारक शुभलेश्यामय-प्रशस्त्र आत्मपरिणाम युक्त धर्म मेरे लिए निर्मल जलाशय है, ब्रह्मचर्य शान्ति-संवलित तीर्थ है, जहां स्नान कर जिनका आसेवन कर मैं विमल-निस्कलुष, विशुद्ध तथा सुशीतीभूत-शीतल-प्रशान्त होता हूँ, दोषों का परित्याग करता हूँ। अनेक संहिताओं.-वेद-मन्त्रों का उच्चारण करता हुआ भी प्रमाद के कारण वह मन्त्रपाठी यदि उनके अनुसार आचरण नहीं करता--उन्हें जीवन में नहीं उतारता तो वह गायें चराने वाले उस ग्वाले जैसा है, जो दूसरों की गायों की गणना करता है। गायें तो दूसरों की हैं, गणना से उसे क्या मिलेगा । उसी प्रकार वह मात्र मन्त्रोच्चारक पुरुष श्रामण्य का अधिकारी नहीं होता। यदि बाल-अज्ञानी पुरुष जीवन भर भी ज्ञानी की पर्युपासना करे, पर, यदि वह उस ज्ञानी से यथार्थ ज्ञान न ले, जीवन-चर्या न सीखे तो दाल परोसने वाली कड़छी जैसे दाल का स्वाद नहीं जानती, वैसे ही वह अज्ञानी धर्म का तत्त्व, धर्म का रहस्य नहीं जानपाता। जो अवितीर्णकांक्ष है, जिसकी आकांक्षाएँ नहीं मिटी हैं- जो तृष्णाकुल है, वह चाहे नग्न रहे, चाहे जटा रखे, चाहे देह पर कीचड़ लेपे, चाहे अनशन करे, चाहे खुली जमीन पर सोए, चाहे शरीर पर मिट्टी मले, भस्म लगाए चाहे उत्कटिकासन करे—उकड़ बैठे, शुद्र नहीं १. चीराजिणं णगिणिणं, जडी-संघाडि-मुंडिणं । एयाणि वि ण तायंति, दुस्सीलं परियागयं ॥ -उत्तराध्ययन सूत्र ५.२१ २. धम्मे हरए बंभे संति-तित्थे, अणाविले अत्त-प्रसन्नलेस्से। जहिं सिणाओ विमलो विसुद्धो, सुसीइओ पजहामि दोसं ॥ -उत्तराध्ययन सूत्र १२.४६ ३. बहुं पि चे संहितं भासमानो, न तक्करो होति नरो पमत्तो। गोपो' व गावो गणयं परेस, न भागवा सामजस्स होति ।। -धम्मपद १.१६ ४. यावजीवम्पि चे बालो, पण्डितं पयिरुपासति । न सोधम्म विजानाति, दन्बी सूपरसं यथा ॥ - -धम्मपद ५.५ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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