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________________ १०८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड:३ बन्धु-बान्धव और जातीय-जन ही उसे बचा सकते हैं।' इस शरीर को पानी के फेन--भाग-सदृश अथवा मृगमरीचिका तुल्य समझकर, मार-काम-भागों के बन्धन छिन्न कर ऐसे बनो कि फिर मृत्यु का देवता तुम्हें न देख सके।' चारित्र्य की गरिमा जीवन में चारित्र्य का बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है। कोई कितना भी क्यों न जाने, किन्तु यदि वह चरित्रनिष्ठ-सच्चरित्र नहीं है तो उसके विपुल ज्ञान से आध्यात्मिक दृष्टि से कुछ भी नहीं सघता । जैन एवं बौद्ध-वाङ्मय में चरित्रशीलता का महात्म्य स्थान-स्थान पर प्रतिपादित हुआ है। बताया गया है, मात्र बाह्य परिवेश एवं बाह्याचार से साधना नहीं फलती । वहाँ अन्तर्जागरण पुरक सत्-चर्या के अनुसरण की आत्यन्त्रिक वाञ्छनीयता है । उसी में साधका का गौरव है। __ चरण विप्रहीन-चरणरहित--आचाररहित पुरुष को अत्यधिक, विपुल शास्त्र-जान भी हो तो, उससे उसको क्या लाभ । वह उसके लिए उसी प्रकार हैं, जिस प्रकार एक अन्धे के समक्ष लाखों, करोड़ों जलते हुए दीपकों का प्रकाश, जिसके बावजूद वह कुछ भी देख पाने में समर्थ नहीं होता। यदि गधे पर चन्दन का बोझ लदा हो तो वह केवल भार मरता है, चन्दन के सौरभ की अनुभूति वह नहीं कर पाता। चरणहीन-आचारशून्य ज्ञानी की भी वही उस गधे जैसी स्थिति होती है। वह तथाकथित ज्ञानी केवल शास्त्रों का भार ढोता है, उनसे प्राप्य लाभ, मार्गदर्शन वह नहीं ले पाता। दुःशील-पर्यागत-दुश्चरित्र में लीन-चरित्रहीन पुरुष चाहे चीवर धारण करे, १.न सन्ति पुत्ता ताणाय, न पिता नापि बन्धवा । अन्तकेनाधिपन्नस्स, नत्थि बातिसु ताणता ॥ -धम्मपद २०.१६ २. फेणूपमं कायमिमं विदित्वा, मरीचिधम्म अभिसम्बुधानो। छेत्त्वान मारस्स पपुप्फकानि, अदस्सनं मच्चुराजस्स गच्छे ।। -धम्मपद ४.३ ३. सुबहु पि सुमहीयं, किं काही चरण-विप्पहीणस्स । अंघस्स जह पलित्ता, दीव-सय-सहस्स कोडी वि ।।. --विशेषावश्यक भाष्य ११५२ ४. जहा खरो चंदण-भारवाहो, भारस्स भागी नहु चंदणस्स । एवं खु गाणी चरणेण हीणो, भारस्स भागीण हु सग्गईए॥ --विशेषावश्यक भाष्य ११५८ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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