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इतिहास और परम्परा]
आचार
१०७ लोक मृत्यु से अभ्याहृत है।'
यह लोक-संसार बड़ा क्लिष्ट-क्लेशमय है-दुःखपूर्ण है। मव-चक्र में फंसा प्राणी जन्म लेता है, जीर्ण होता है-बूढ़ा होता है, मर जाता है, च्युत होता है-एक योनि से छूटता है, दूसरी योनि में जन्म लेता है। यही भव-भ्रमण है।
निर्वेद-जगत् के प्रति ग्लानि, जुगुप्सा के कारण वैराग्य उत्पन्न होता है। वैराग्य से विमुक्ति होती है-प्राणी भव-बन्धन से छूट जाता है।
न वह मेरा है और न मैं उसका हूँ। यहाँ कोई किसी का नहीं है।
मनुष्य के मर जाने पर उसे श्मशान में ले जाकर जला देते हैं। तत्पश्चात् समीउसके सम्बन्धी जातीय जन उससे अनपेक्ष-निरपेक्ष हो जाते हैं। किसी को उसकी अपेक्षा नहीं रहती।
पक्व-पके हुए फलों को जैसे प्रपतन का-गिरने का झड़ पड़ने का सदा भय बना रहता है, उसी प्रकार जन्मप्राप्त-उत्पन्न हुए मनुष्यों को सदा मृत्यु का भय बना रहता है।
मृत्यु प्राप्त, परलोकगामी पुत्र का न पिता त्राण कर पाता है.-न पिता उसे मौत से बचा सकता है, न किसी मृत्युगत स्वजातीय व्यक्ति का स्वजातीय जन ही--उसकी जाति के लोग ही त्राण कर सकते हैं । कोई किसी को मृत्यु से नहीं छुड़ा सकता।
अन्तक-यमराज या मृत्यु द्वारा अधिपन्न-अधिकृत—कब्जे में किये हुये मनुष्य का न पुत्र त्राण कर सकते हैं-न उसे उसके बेटे बचा सकते हैं, न पिता बचा सकता है, न
१. मच्चुना सन्माहतो लोको।
-थेरगाथा ४५२ २. किच्छां बतायं लोको, आपन्नो जायति च जीयति च । मीयति च चवति च उपञ्चति च ॥
-संयुत्त निकाय १७.३४ ३. निश्विदं विरज्जति विरागा, विरागा विमुच्चतीति।
-मज्झिम निकाय १.३२ ४. न तं मम, न सोऽहमस्मि।
--मज्झिम निकाय १.४.५. ५. अपविद्धो सुसानस्मि, अनपेक्खा होन्ति आतयो।
-सुत्तनिपात ११.८ ६. फलानामिव पक्कानं, पातो पपतना भयं । एवं जातानं मच्चानं, निच्चं मरणतो भयं ॥
-सुत्तनिपात ३४.३ ७. तेसं मच्चुपरेतानं गच्छन्तं परलोकतो। न पिता तायते पुत्तं, बाति वा पननातके ।।
-सुत्तनिपात ३४.६
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