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१०६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : ३ यह शरीर जल के फेन, जल के बुबुद् के सदृश क्षणभंगुर, अशाश्वत है। इसके प्रति मुझे कोई अनुराग नहीं है, क्योंकि इसे तो आगे या पीछे त्यागना ही होगा।'
__ यह जगत्-जगत् के प्राणी मृत्यु द्वारा अभ्याहत-आक्रान्त हैं—सब के पीछे मृत्यु लगी है । वे (प्राणी) वृद्धावस्था द्वारा परिवृत हैं--घिरे हैं। दूसरे शब्दों में प्राणी मात्र के लिए वार्धक्य और मरण अनिवार्य है।'
जन्म दुःख है, बुढ़ापा दुःख है, रोग दुःख है, मृत्यु दुःख है। आश्चर्य है यह सारा का सारा संसार दुःखपूर्ण है, जिसमें प्राणी तरह-तरह से कष्ट पा रहे हैं।'
निर्वेद-संसार से ग्लानि द्वारा व्यक्ति सब विषयों से-काम-भोगों से विरक्त हो जाता हैं, संसार-मार्ग को उच्छिन्न कर सिद्धि मार्ग-मुक्ति-मार्ग प्रतिपन्न कर लेता हैप्राप्त कर लेता है।
जब मनुष्य मर जाता है तो उसके शरीर को चिता में जला देते हैं। उसकी पत्नी, पुत्र तथा स्वजातीय जन किसी अन्य दाता के जिससे कुछ प्राप्त होती है, ऐसे व्यक्ति के पीछे हो जाते हैं।
मैं एक हूँ-एकाकी हूँ-अकेला हूँ। मेरा कोई नहीं है, न मैं ही किसी का हूँ।
लोक-लौकिक-जन मृत्यु से, वृद्धावस्था से अभ्याहत हैं-आक्रान्त हैं। मौत और . बुढ़ापा उनके पीछे लगे हैं।
१. असासए सरीरम्भि, रई नोवलमामहं । पच्छा पुरा व चइयव्वे, फणबुब्बुयसन्निभे ॥
-उत्तराध्ययन सूत्र १६.१४ २. मच्चुणाऽमाहओ लोगों, जराए परिवारिओ। अमोहा रयणी वुत्ता, एवं ताय वियाणह ॥
-उत्तराध्ययन सूत्र १४.२३ ३. जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगाणि मरणाणि य । अहो दुक्खो हू ससारों जल्य कीसंति जंतवो ।।
-उत्तराध्ययन सूत्र १९.१६ ४. निव्वेएणं.. सव्वविसएसु विरज्जइ, सम्वविसएसु विरज्जमाणे.. 'संसार मग्गं वोच्छिदइ, सिद्धिमग्गं पडिवन्ने य हवइ ।
-उत्तराध्ययन सूत्र २६.२ ५. तं इक्कगं तुच्छसरीरगं से, चिईगयं दहिउँ पावगेणं । भज्जा य पुत्ता वि य नाययो य, दायारमन्नं अणुसंकमंति ।।
-उत्तराध्ययन सूत्र १३.२५ ६. एगो अहमंसि, ण मे अत्थि कोइ, ण वाहमवि कस्सइ।
-आचारांग सूत्र १.८.६३ ७. एवमन्माहतो लोको मच्चुना प जराय च।
-सुत्तनिपात ३४.९
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