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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ]
आचार
१०५ जो वस्तुतः कुछ करता नहीं, केवल बातें बनाता है, विद्वज्जन उसे हेय मानते हैं।'
जो बिना पूछे ही दूसरों के आगे अपने शील-व्रतों की चर्चा करता है, ज्ञानी-जन उसे अनार्य-धर्मा-अधम धर्मयुक्त कहते हैं । वह स्वयं और पाप-संचय करता आता है।
वैराग्य-चेतना
जीवन को त्याग तथा संयम के पथ पर अग्रसर करने के लिए मनुष्य को वैराग्यमूलक चिन्तन में अपने को जोड़े रखना चाहिए। शरीर, संसार, वैभव तथा काम-मोगों की नश्वरता पर चिन्तन, मनन करते रहना चाहिए। इससे धर्मोन्मुखता का भाव उत्पन्न होता है, आन्तरिक-बल उबुद्ध होता है।
__ इस ओर समुद्यत साधक एषणा, वासना एवं आसक्ति के झंझावात में अविचल रहता है। विषयों में विरक्ति तथा व्रतों में अनुरक्ति का भाव जागरित होता है।
समय व्यतीत होने पर जैसे वृक्ष का पत्ता पीला होकर-पककर गिर जाता है, उसी प्रकार मनुष्यों के जीवन का पत्ता पककर-आयुष्य का परिपाक होने पर झड़ जाता हैमनुष्यों का वृक्ष के पत्ते की ज्यों नश्वर है । अतः वह क्षण भर भी प्रमाद न करे।
मनुष्य चिन्तन करे-कर्मों के परिणाम-स्वरूप कष्ट झेलते हुए मेरा ऋण करने मेंमुझे कष्टों से बचाने में न माता, न पिता, न स्नुषा-पुत्र-वधु, न भाई और न पुत्र ही समर्थ है, मुझे ही अपने आचीर्ण कर्मों का फल भोगना होगा।
देखो, जगत् की यह स्थिति है-तरुण, वृद्ध और यहाँ तक कि गर्भस्थ शिशु भी प्राणों को त्याग जाते हैं। बाज जैसे बटेर को झपट लेता है, इसी प्रकार आयु-क्षय होने पर काल प्राणी को झपट लेता है-पकड़ ले जाता है।
१. अकरोन्तं भासमानं परिजानन्ति पण्डिता ।
-सुत्तनिपात १५.२ २. यो अत्तनो सीलवतानि जन्तु,
अनानुपुट्ठो च परेसपावा । अनरियधम्म कुसला तमाहु, यो आतुमानं सयमेव पावा ॥
-सुत्तनिपात ४.४१.३ ३. दुमपत्तए पंडुरए जहा, निवडइ राइगणाण अच्चए। एवं मणुयाण जीवियं, समयं गोयम !मए पमायए।
-उत्तसराध्ययन सूत्र १०.१ ४. माया पिया ण्हुसा भाया, भञ्ज्ञा पुत्ता य ओरसा। णालं ते मम ताणाय,लुप्पंतस्स सकम्मुणा ॥
-उत्तराध्ययन सूत्र ६.३ ५. डहरा बुड्ढा य पासह, गब्भत्था वि चयंति माणवा। संणे जह वट्टयं हरे, एवं आयुखयम्भि तुट्टती ॥
-सूत्रकृतांग १.२.१.२
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