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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : ३
पण्डित - ज्ञानवान्, विवेकशील, हितदर्शी अपना हित सोचने वाले पुरुषों को चाहिए वे संतों की सत्पुरुषों की संगति करे ।"
कहीं किसी की अवमानना या तिरस्कार नहीं करना चाहिए ।
यदि विचरण करते हुए अपने सदृश, श्रेयस्कर पुरुष का साथ न मिले तो साधक को चाहिए, वह दृढ़ता पूर्वक अकेला ही विचरण करे । बाल - अज्ञानी का साहचर्य, साथ कभी - नहीं करना चाहिए ।
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प्रिय तथा प्रतिनन्दित उत्तम, आनन्दप्रद वाणी बोलनी चाहिए । *
भिक्षु ! तुम ध्यान रत रहो, प्रमाद मत करो!
निद्रा का बहुलीकरण मत करो - अधिक नींद मत लो ।
मनुष्य जिनसे धर्म का शिक्षण प्राप्त करे- धर्म-तत्त्व का ज्ञान पाए, उनकी वैसे ही पूजा सत्कार-सम्मान करे, जैसे देववृन्द अपने अधिपति इन्द्र की करते हैं।
धीर - वैर्यशील, गंभीर पुरुष कानों से सब सुनता है, नेत्रों से सब देखता है, किन्तु, जो सुना, देखा, वह सब उद्घाटित करे - ओरों से कहे, यह उचित नहीं है।
दुःशील - दूषित शीलयुक्त – निन्द्ध आचारयुक्त पुरुष अवर्ण – अपयश एवं अकीर्ति प्राप्त करता है ।
१. सब्भिरेव समासेथ, पण्डिते हेत्थदस्सिभिः ।
- थेरगाथा ७.
२. नातिमथ कत्थं चिनं कञ्चि ।
- सुत्तनिपात ६.६ ३. चरचे नाधिगच्छेय्य, सेय्यं सदिसमत्तनो । एकचरियं दड्ढहं कयिरा, नत्थि बाले सहायता ॥ -धम्मपद ५.२ ४. पिय-वाचमेव मासेय्य, या वाचा पटिनंदिता । —सुत्तनिपात २६.३
५. भाय भिक्खू ! मा च पामदो ।
६. निद्दं न बहुलीकरेय्य ।
धम्मपद २५.१२
- सुत्तनिपात ५२.१२
७. यस्मा हि धम्मं पुरिसो विजञ्जा, इन्दं व तं देवता पूजयेय ।
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- सुत्तनिपात २०.१ ८. सषं सुणाति सोतेन, सव्वं परस्सति चक्खुना । न च दिट्ठ सुत्तं धीरो, सव्वमुज्झितुमरहति ॥ - थेरगाथा ५०३ ९. अवष्णं च अकिति च दुस्सीलो लभते नरः । -थेरगाथा ६१४
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