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________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : ३ पण्डित - ज्ञानवान्, विवेकशील, हितदर्शी अपना हित सोचने वाले पुरुषों को चाहिए वे संतों की सत्पुरुषों की संगति करे ।" कहीं किसी की अवमानना या तिरस्कार नहीं करना चाहिए । यदि विचरण करते हुए अपने सदृश, श्रेयस्कर पुरुष का साथ न मिले तो साधक को चाहिए, वह दृढ़ता पूर्वक अकेला ही विचरण करे । बाल - अज्ञानी का साहचर्य, साथ कभी - नहीं करना चाहिए । १०४ प्रिय तथा प्रतिनन्दित उत्तम, आनन्दप्रद वाणी बोलनी चाहिए । * भिक्षु ! तुम ध्यान रत रहो, प्रमाद मत करो! निद्रा का बहुलीकरण मत करो - अधिक नींद मत लो । मनुष्य जिनसे धर्म का शिक्षण प्राप्त करे- धर्म-तत्त्व का ज्ञान पाए, उनकी वैसे ही पूजा सत्कार-सम्मान करे, जैसे देववृन्द अपने अधिपति इन्द्र की करते हैं। धीर - वैर्यशील, गंभीर पुरुष कानों से सब सुनता है, नेत्रों से सब देखता है, किन्तु, जो सुना, देखा, वह सब उद्घाटित करे - ओरों से कहे, यह उचित नहीं है। दुःशील - दूषित शीलयुक्त – निन्द्ध आचारयुक्त पुरुष अवर्ण – अपयश एवं अकीर्ति प्राप्त करता है । १. सब्भिरेव समासेथ, पण्डिते हेत्थदस्सिभिः । - थेरगाथा ७. २. नातिमथ कत्थं चिनं कञ्चि । - सुत्तनिपात ६.६ ३. चरचे नाधिगच्छेय्य, सेय्यं सदिसमत्तनो । एकचरियं दड्ढहं कयिरा, नत्थि बाले सहायता ॥ -धम्मपद ५.२ ४. पिय-वाचमेव मासेय्य, या वाचा पटिनंदिता । —सुत्तनिपात २६.३ ५. भाय भिक्खू ! मा च पामदो । ६. निद्दं न बहुलीकरेय्य । धम्मपद २५.१२ - सुत्तनिपात ५२.१२ ७. यस्मा हि धम्मं पुरिसो विजञ्जा, इन्दं व तं देवता पूजयेय । Jain Education International 2010_05 - सुत्तनिपात २०.१ ८. सषं सुणाति सोतेन, सव्वं परस्सति चक्खुना । न च दिट्ठ सुत्तं धीरो, सव्वमुज्झितुमरहति ॥ - थेरगाथा ५०३ ९. अवष्णं च अकिति च दुस्सीलो लभते नरः । -थेरगाथा ६१४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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