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तत्त्व : आचार: कथानुयोग]
आचार
१०३ भिक्षु कानों से बहुत सुनता है, नेत्रों से बहुत देखता है, किन्तु दृष्ट-देखा हुमा, श्रुत-सुना हुआ सब वह किसी से नहीं कहता । क्योंकि वैसा करना अनुचित है।'
जिसने चरित्र को खण्डित कर दिया, वह अधर्माचारी है। उसका इस लोक में अपयश होता है, अकीति होती है। वह परलोक में नीच गति में जाता है।
कुशील-दुःशील-कुत्सित, दूषित शील युक्त, चरित्र-शून्य पुरुष केवल बोलने में बहादुर होते हैं-निरर्थक-भाषी होते हैं, केवल डींगें मारते हैं।
साधक स्वयं अपना समुत्कर्ष-प्रशस्ति न करे-बड़प्पन न बताए।
जाने, अनजाने यदि कोई अधार्मिक-धर्मविरुद्ध कार्य हो जाए तो भिक्षु उसके लिए पश्चात्ताप करे, पुनः कदापि वैसा न करे।
जिसके अन्तःकरण में काम-मोगमय वासना का, आसक्ति का पूर्व-संस्कार नहीं है तथा पश्चात्-भविष्य के लिए भी मन -संकल्पना नहीं है, तब वैसी समीचीन पूर्वापर स्थिति होने पर बीच में-वर्तमान में उसके मन में काम-मोगमय संकल्प कहाँ से होगा?
पश्यक-द्रष्टा-यथार्थदर्शी व्यक्ति के लिए उपदेश उपेक्षित नहीं है।
विनीत-अनुशासित-प्रशिक्षित घोड़ा जैसे चाबुक देखते ही प्रतिकूल मार्ग को छोड़ देता है, उसी प्रकार विनीत शिष्य को चाहिए, वह गुरु के संकेत मात्र से समझ कर पाप का-दूषित कृत्यों का परिवर्जन करे ।
१.ब सणेह कण्णेहि,
बहुं बच्छीहिं पिच्छा। ण य दिनें सुयं सव्वं, भिक्खू अक्खाउमरिहइ ।।
-दशवकालिक ८.२० २. इहेवऽधम्मो अयसो अकित्ती... संभिन्नवित्तस्य य हेळंओ गई॥
-दशवकालिक चूणि १.१३ ३. वाया वीरियं कुसीलाणं।
--सूत्रकृतांग १.४.११७ ४. अत्ताणं ण समुक्कसे।
-दशवकालिक सूत्र ८.३० ५. ते जाणमजाणं वा, कटु आहम्मियं पयं। संवरे खिप्पमप्पाणं, बीयं तं ण समायरे॥
-दशवकालिक सूत्र ८.३१ ६. जस्स णत्थि तुरे पच्छा, मज्झे तस्स कुओ सिया।
-आचारांग सूत्र १.४.४.३ ७. उद्देसो पासगस्स पत्थि।
-आचारांग सूत्र १.२.३.६ ८. कसं वा दट्ठमाइण्णे, पावगं परिवज्ज।
-उत्तराध्ययन सूत्र १.१२
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