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________________ १०१ तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] क्षुधावश चाहे शरीर सूख कर कौए की टांग जैसा दुबला हो जाए, मात्र नाड़ियों का जाल-सा प्रतीत होने लगे, किन्तु, आहार की-अन्न-पान की-भिक्षाचर्या की मर्यादाविधि-विधान जानने वाला भिक्षु मन में कभी दीनता न लाए, सामर्थ्य-पूर्वक दृढ़तापूर्वक संयम पथ पर आगे बढ़ता जाए।' ऐसे.ही शब्दों से थेर गाया में भिक्षु को अदीन एवं सुदृढ़ भाव से संयम-यात्रा में भागे । बढ़ते रहने की प्रेरणा दी गई है। संयम सर्वोपरि जीवन में संयम का स्थान सर्वोपरि है। वह किसी पर के माध्यम से न साध्य है, न लभ्य है। उसे साधने में स्वयं सपना पड़ता है, अनवरत साधना में, अभ्यास में जुटे रहना होता है, दान, पुण्य आदि सब उससे नीचे रह जाते हैं । एक पुरुष ऐसा है, जो हर महीने दश-दश लाख गायें दान में देता है, एक ऐसा है, जो कुछ भी नहीं देता, कुछ भी दान नहीं करता, संयम की आराधना करता है। इन दोनों में संयमी का स्थान श्रेष्ठ है, ऊंचा है। एक पुरुष हर महीने सहस्रदक्षिण-जिसमें हजार-हजार गायें, मुद्राएं आदि दक्षिणा दी जाती हैं, यज्ञ सौ वर्ष पर्यन्त करता है। एक ऐसा है, जो भावितात्मा-पुण्यात्मा-संयमशील पुरुष की केवल मुहूर्त भर पूजा-सेवा करता है । सौ वर्ष तक किये जाने वाले यज्ञों से वह मुहूर्त भरे की पूजा कहीं श्रेष्ठ है, श्रेयस्कर है ।। सत्पए-वर्शन भारतीय संस्कृति में एक संन्यासी मुनि या भिक्षु का जीवन ज्ञानाराषनामय, धर्मा १. कालीपव्वंगसंकासे, किसे धमणिसंतए। मायण्णे असणपाणस्स, अदीणमणसो चरे।। -उत्तराध्ययन सूत्र २.३ २. काल (ला) पब्वंग संकासो, किसो धम्मनिसन्थतो। मतञ्जू अन्नपानम्हि, मदीनमनसो नरो॥ -पेर गाथा २४६ ३. जो सहस्सं सहस्साणं, मासे मासे गवं दए । तस्सावि संजमो सेओ, अदितस्स वि किंचणं ।। -उत्तराध्ययन सूत्र ६.४. ४. मासे मासे सहस्सेन, यो यजेथ सतं समं । एकञ्च भावितत्तानं, मुहूत्तमपि पूजये। सा येव पूजना सेय्यो, यं चे वस्ससतं हुतं ॥ -धम्मपद ८.७ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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