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________________ १०० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड : ३ राजा इषुकार प्रगावित हुआ। जैसे हाथी बन्धन तुड़ाकर चला राज्य का परित्याग कर चल पड़ा।' रानी के वचन से जाता है, वैसे ही राष्ट्र का दोष-वर्जन- सद्गुण अर्जन साधक को चाहिए, वह निरन्तर अपने दोषों का परिवर्जन करता जाए। उनके स्थान पर गुणों का संचयन, संग्रहण करता जाए। ऐसा करता हुआ वह अपनी साधना की मंजिल पर अप्रतिहत गति से अग्रसर होता जाता है । उपशम द्वारा - क्षमा द्वारा क्रोध का हनन करे, क्रोध को नष्ट करे, मार्दव --- मृदुता या विनय द्वारा मान अहंकार को जीते, आर्जव - ऋजुता - सरलता द्वारा मायाछलना को मिटाए तथा सन्तोशष द्वारा लोभ को जीते । क्रोध को अक्रोध से - क्षमा से जीते । असाधु को साधु से -- साघुता द्वारा जीते, कृपण को - कंजूस को दान से - उदारता से जीते। तथा असत्यभाषी को सत्य के द्वारा जीते । संयमी की अवीनता : सामर्थ्य साधक का जीवन भोजन के लिए नहीं है। भोजन उसके लिए, उसके संयममय जीवन को सहारा देने के लिए है, जिससे इस देह द्वारा परमार्थ साधने के उपक्रम में वह सदा लगा रहे, आगे बढ़ता रहे। अतएव भोजन प्राप्त करने में भिक्षा का एक विशेष विधिक्रम है, शास्त्रीय पद्धति है, जिसके पीछे यह भावना है कि ऐसी प्रासुक, एषणीय, निर्दोष भिक्षा ली जाए, जिससे साधु के मूल व्रत व्याहत न हो, यदि वैसी नियम-परंपरा के साथ भिक्षा मिलने में कठि-. नाई का सामना करना पड़े, तो साधक कभी दीन नहीं बनता, मन में दुर्बलता नहीं लाता । वह खुशी-खुशी उस क्षुधा - परिषह को सहता जाता है । अदीन भाव से, प्रबल सामर्थ्य से वह संयम पथ पर सदा अविचल रहता है । संयम और व्रत की कीमत पर वह कभी भिक्षा स्वीकार नहीं करता । यदि वैसी मिक्षा कुछ दिन लगातार प्राप्त न होते रहने का प्रसंग बन जाए, तो वह हँसता-हँसता समाधि-रत होता हुआ मृत्यु का वरण कर लेता है, पर, विचलित नहीं होता उसके लिए मरण महोत्सव का रूप ले लेता है, जो संयम के सशक्त निर्वाह का प्रतीक है, जो औरों के लिए निश्चय बड़ा ही प्रेरक सिद्ध होता है । १. इदं वत्वा महाराज, एसुकारी दिसम्पति । रट्ठ हित्वान पब्ब जि, नागो छेत्वान बन्धनं ॥ - हत्थिपाल जातक - गाथा २० 26 उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे । मायं चज्जवभावेण, लोभं संतोसओ जिणे ॥ - दशवैकालिक सूत्र ८, ३६ ३. अक्कोघेन जिने कोघं, असाधुं साधुना जिने । जिने कदरियं दानेन, सच्चेन अलिकवादिनं ॥ --- धम्मपद १७.३ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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