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________________ तत्त्व : आचार: क आचार उसी प्रकार बीमारी और वृद्धावस्था मनुष्य को मृत्यु के मुख में पहुँचा देती है।'' यों पुरोहित कुमार रुकता नहीं, साधना-पथ का पथिक बन जाता है । उसके सभी छोटे भाई उसी के पथ का अनुसरण करते हैं। इस घटना से पुरोहित में अन्तःप्रेरणा जागती है। अपने युवा पुत्रों को श्रमण-जीवन स्वीकार करते हुए देखकर वह सोचता है, मन ही मन निश्चय करता है कि उसे गहस्थाश्रम का त्याग कर देना चाहिए। बह अपनी वशिष्ठ गोत्रीया पत्नी को सम्बोधित कर कहता है-"वृक्ष तभी तक शोभा पाता है, जब तक वह शाखाओं से हरा भरा रहता है। वह शाखाओं से रहित हो जाए- उसकी शाखाएं काट दी जाएं तो वह मात्र ढूंठ रह जा है। पुत्रों के चले जाने पर मैं अपने को वैसा ही पाता हूँ। वाशिष्ठ ! मेरे लिए यह भिक्षाचर्या काभिक्षु-जीवन स्वीकार करने का समय है।" पुरोहित में वैराग्यभाव जागता है। पुरोहित-पत्नी भी इस सारे घटनाक्रम से उत्प्रेरित होती है। पती-पत्नी-दोनों गृहत्याग कर जाते हैं। पुरोहित परिवार के सभी प्राणी चले जाते हैं। केवल घर रह जाता है, संपति रह जाती है। अनुत्तराधिकारी की संपत्ति का राजा मालिक होता है। राजा अधिकारियों को राजभवन में संपत्ति लाने की आज्ञा देता है। रानी को यह मालूम पड़ता है। यह राजा से कहती है-"महाराज !ब्राह्मण ने काम भोगों का परित्याग कर दिया, वमन कर दिया । आप दमित को प्रत्यावमित करना चाहते हैं-वमन किये हुए को खा जाना चाहते हैं । वमन को खानेवाला पुरुष जगत् में कभी प्रशंसित नहीं होता।"3 १. यस्स अस्स सक्खी मरणेन राज ! जराय मेत्ती नरविरियसेट्ठ ! यो चापि जञान मरिस्सं कदाचि, परस्सेयं तं वस्ससतं अरोगं ॥ यथापि नावं पुरिसोदकम्हि, एरेति चे नं उपनेति तीरं। एवम्पि गयाधी सततं जरा च, उपनेन्ति मच्चं वसं अन्तकस्स ॥ -हस्तिपाल जातक ७,८ २. साखाहि रुक्खो लभते समलं, पहीनसाखं पन खानु आहु । पहीन पुत्तस्स ममज्ज होति, वासेट्ठि ! मिक्खाचरियाय कालो। ३. अवमी ब्राह्मणो कामे, ते त्वं पच्चावमिस्ससि । बन्तादो पुरिसो राज ! न स होति पसंसियो॥ -हत्यिपाल जातक, गाथा १८ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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