________________
BE
आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : ३ राजा उसे संबोधित कर कहता है-"वेदों का अध्ययन करो, धनार्जन करो, गृहस्थ बनो, पुत्रवान् बनो, गन्ध, रस, आदि सुखमय भोग भोगो। फिर पुत्रों को प्रतिष्ठापित करराज्य में उच्च पदों पर आसीन कराकर, परिवार का, घर का उत्तरदायित्व सौंपकर तुम वनवासी मुनि बनो, जो ऐसा करता है, वही प्रशस्त है-श्रेष्ठ है।"
__ हस्तिपाल ने कहा-"वेद परम सत्य के संवाहक नहीं हैं। जनार्जन से जीवन का लक्ष्य नहीं सघता। पुत्र-लाभ से जरा, मृत्यु आदि दुःखों से छुटकारा नहीं मिलता । सत्पुरुषों ने गन्ध, रस आदि इन्द्रिय भोगों को मूर्छा कहा है। जीवन का अपने साध्य अपने कर्मों द्वारा ही फलित होता है, इनसे नहीं।"
राजा बोला-"ब्राह्मण कुमार! तुम ठीक कहते हो, अपने कर्मों द्वारा ही जीवन का साध्य सधता है, किन्तु एक बात सुनो, तुम्हारे पिता, माता वृद्ध हो गये हैं। वे चाहते है, तुम सौ वर्ष जीओ, नीरोग रहो, उनकी आँखों के सामने रहो।"
हस्तिपाल ने उत्तर दिया-"उत्तम पुरुषों में श्रेष्ठ राजन् ! जिसका मत्यु के साथ सख्य-सखाभाव हो, जिसकी जरा के माथ मैत्री हो, जिसे यह विश्वास हो कि मैं कभी नहीं मरूंगा, उसके लिए यह सोचा जा सकता है कि वह शतायु हो, निरोग हो । मैं ऐसा संभव नहीं मानता। जैसे एक पुरुष पानी में नौका चलाता है। वह नौका उसे तीर पर पहुँचा देती है,
१. अधिच्च वेदे परियेस वित्तं,
पुत्ते गेहे तात पतिट्ठपेत्वा । गन्धे रसे पच्चनुभुब्व सब्द, अरचं साधु मुनि सो पसत्थो।। वेदा न सच्चा न च वित्तलाभो, न पुत्तलाभेन जरं विहन्ति । गन्धे रसे मुच्चनं आहु सन्तो, स कम्मुना होतिफलूपपत्ती॥ अद्धा हि सच्चं वचनं तवेतं, सकम्मना होति फलूपपत्ति । जिण्णा च माता पितरोच तव यिमे, पस्येय्यु तं वस्ससतं आरोगं ॥
-हस्तिपाल जातक ५०६. गाथा.४-६
Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org