________________
तत्त्व : आचार : कथानुयोग ]
आचार करने का समय है। मैं वैसा ही करूंगा।"
अपने पति का यह संकल्प पुरोहित-पत्नी यशा को सहसा उद्वेलित कर डालता है। यह अन्त:प्रेरित होती है। पति-पत्नी दोनों श्रमण-जीवन स्वीकार कर लेते हैं।
राजपुरोहित का सारा परिवार का परिवार सांसारिक जीवन से मुंह मोड़ लेता है। सभी घर छोड़कर चले जाते हैं। संपत्ति का कोई उत्तराधिकारी नहीं बचता। अनुत्तराधिकारी की संपत्ति पर राजा का स्वामित्व होता है। राजा इषुकार पुरोहित की. संपत्ति राजभवन में ले आने को सेवकों को आदेश देता है । रानी यह सुनती है। वह राजा से कहती है-"महाराज ! जो पुरुष वमन किये हुए पदार्थ को खाता है, वह प्रशंसित नहीं कहा जाता। ब्राह्मण ने जिस धन को छोड़ दिया है, जिसका वमन कर दिया है, उसे आप लेना चाहते हैं, मैं नहीं समझती, यह आपके योग्य है।'
"महाराज इषुकार ! यमराज जैसे बन्धन तोड़कर अपने स्थान में-वन में चला जाता है, वैसे ही आत्मा काम-गुणों का-सांसारिक भोगेषणाओं का त्याग कर बन्धन-मुक्त हो जाती है। मैंने यह ज्ञानी जनों से सुना है।"3
राजा रानी के वचन सुनकर विरक्त हो जाता है। राजा एवं रानी विशाल राज्य का, दुर्जय काम-भोगों का परित्याग कर निविषय-सांसारिक विषयों-से अतीत, आकांक्षा रहित, स्नेहरहित-ममतारहित एवं परिग्रहरहित हो जाते हैं।
हस्तिपाल जातक : सम्बद्ध घटनांश : तथ्य
हस्पिताल जातक में भी लगभग ऐसा ही प्रसंग है । राजपुरोहित का पुत्र हस्तिपाल मिक्ष-जीवन स्वीकार करने को उद्यत है। उसका पिता एवं राजा चाहता है, वह वैसा न करे, गृहस्थ में रहे।
१. पहीणपुत्तस्स हु नत्थि वासो,
वासिछि ! भिक्खायरियाइ कालो। साहाहि रुक्खो लहई समाहिं, छिन्नाहि साहाहि तमेव खाणुं ।
-उत्तराध्ययन सूत्र १४.२६ २. वंतासी पुरिसो रायं, न सो होई पसंसिओ। माहणेण परिच्चत्तं, धणं आदाउमिच्छसि ।।
-उत्तराध्ययन सूत्र १४.३८ ३. नागोव्व बंधणं छित्ता, अप्पणो वसहिं वए। एवं पत्थं महाराय !, उसुयारि त्ति मे सुयं ॥
--उत्तराध्ययन सूत्र १४.४८ ४. चइत्ता विडलं रज्जं, कामभोगे य तुच्चए । नित्विसया-निरामिता, निन्नेहा निप्परिग्गहा ॥
-उत्तराध्ययन सूत्र १४.४६
Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org