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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : ३
मुनि दीक्षा अंगीकार करें। उसने उन्हें समझाने का प्रयास किया कि जो वे करना चाहते हैं, वह समुचित नहीं है । पहले वे अपने सांसारिक कृत्य संपन्न करें । वेदवेत्ता कहते हैंअपुत्रस्य गतिर्नास्ति – जो निष्पुत्र मर जाता है, उसकी सद्गति नहीं होती । यों अनेक प्रकार से अपने पुत्रों को समझाता हुआ राजपुरोहित बोला- "पुत्रो ! तुम वेदों का अध्ययन करो, वित्रों को भोजन कराओ, विवाह करो, स्त्रियों के साथ मांसारिक भोगों का सेवन करो, पुत्रवान् बनो, पुत्रों को घर का उत्तरदायित्व सौंपो । तदनन्तर तुम वनवासी मुनि बनो । तुम्हारे लिए यही प्रशस्त है— उत्तम है । ""
पुरोहित पुत्रों ने कहा - "वेदों का अध्ययन करने मात्र से त्राण नहीं हो जाता-जगत् के दुःखों से छुटकारा नहीं मिल जाता । ब्राह्मणों को भोजन कराने मात्र से क्या सधेगा उससे हम और अंधकार की ओर अग्रसर होंगे । स्त्री एवं पुत्र भी त्राण नहीं बनते—जन्म-मरण के आवागमन के दुःख से छुड़ा नहीं सकते । ऐसी स्थिति में, जो आप कहते हैं, वह हम कैसे मानें ? २
जिसका मृत्यु के साथ सख्य हो— मत्री हो, अथवा जिसमें भाग कर मृत्यु से बच जाने की शक्ति हो, अथवा जो यह जानता हो कि मैं कभी नहीं मरूंगा, वही कल के लिए सोच सकता है । पर कौन जाने-कल आयेगा या नहीं ? अ
अन्ततः पुरोहितकुमार अपने लक्ष्य पर चल पड़ते हैं, श्रमण बन जाते हैं ।
मोक्षोद्यत पुत्र पिता के मन में एक प्रेरणा जगा जाते हैं। पिता को भी संसार अप्रिय लगने लगता है । वह अपनी पत्नी से, जो वाशिष्ठ गोत्रीया थी, कहता है— "वाशिष्ठि ! मैं पुत्र प्रहीण हूँ — मेरे पुत्र घर छोड़कर चले गये । अब मुझे घर में रहना अच्छा नहीं लगता । वृक्ष तभी तक शोभा पाता है, जब तक वह शाखाओं से आपूर्ण हो, हराभरा हो । जब शाखाएँ काट ली जाती हैं, यो वह स्थाणु -- मात्र ठूंठ रह जाता है । यह बात मैं अपने साथ पाता हूँ । अब मेरे लिए वस्तुतः भिक्षाचर्या का — प्रव्रज्या स्वीकार
१. अहिज्ज वेए परिविस्स विप्पे, पुते परिष्ठप हिंसि जाया । मोच्चाण भोए सह इत्थियाहि, आरणगा होह मुणी पसत्था ॥
- उत्तराध्ययन सूत्र १४.६ २. वेया अहीया न हवंति ताणं, भुत्ता दिया निति तमं तमेणं । जाया य पुत्ता न हवंति ताणं कोणाम ते अणुमन्नेज्ज एयं ॥ !
—-उत्तराध्ययन सूत्र १४.१२ ३. जस्सत्थि मच्चुणा सक्खं, जस्स वत्थि पलायणं । जो जाणइ न मरिस्सामि, सो हु कंखे सुए सिया ।।
— उत्तराध्ययन सूत्र १४.२७
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