________________
तत्त्व : आचार : कथानुयोग]
आचार रात को भोजन नहीं करना चाहिए । वह विकाल-भोजन है—बेसमय का भोजन है, निषिद्ध है।'
भगवान् तथागत ने भिक्षुओं को संबोधित कर कहा-“भिक्षुओ ! एसे पुरुष बहुत कम हैं, जो विकाल-भोजन से-रात्रि-भोजन से विरत होते हैं-रात्रि-भोजन का परित्याग करते हैं । ऐसे पुरुष बहुत हैं, जो विकाल-भोजन से-रात्रि-भोजन से विरत नहीं होतेरात्रि-भोजन का परित्याग नहीं करते ।"२
संयम और ममता संयम अहंता एवं ममता से अलिप्त समता का मार्ग है। वह बाह्य आकर्षणों से अछूता आत्मा को- 'स्व' को आयत्त करने का साधना-प्रसूत विधिक्रम है । वह एक ऐसी सार्वजनीन, विश्वजनीन जीवन-पद्धति है, जहाँ संकीर्ण पारिवारिक तथा जातीय आदि सम्बन्ध नगण्य हो जाते हैं। प्राणीमात्र के साथ एक ऐसा तादात्म्य सध जाता है, जहाँ कोई पराया होता ही नहीं। यह पर में विरक्ति तथा स्व में अनुरक्ति का राजपथ है ।
इस पथ पर समपित होने के संकल्प का जिनमें उद्भव होता है, वे निश्चय ही धन हैं। किन्तु, उस पथ पर आगे बढ़ते उनके समक्ष बड़ी बाधाएँ आती हैं, अवरोध आते हैं, माता-पिता की ओर से, प्रियजनों की ओर से, अनुकूल, प्रतिकूल, मनोज्ञ, अमनोज्ञ इत्यादि । पर, सत्त्वशील पूरुष उन्हें लांघ जाते हैं। लांघ ही नहीं जाते, उनके पवित्र, तितिक्षापा व्यक्तित्व का सहज रूप में ऐसा अमिट प्रभाव होता है कि ममतावश उन्हें रोकने वाले स्वयं
मता-विमुक्त हो जाते हैं। जिस पथ पर जाने का वे प्रतिषेध करते हैं, उसी पर चल पड़ते हैं। बड़ी विचित्र बात है । जैन एवं बौद्ध दोनों ही परम्पराओं में ऐसी बहुमूल्य प्रेरणाएँ प्राप्य हैं।
उत्तराध्ययन : सम्बद्ध घटनांश: तथ्य :
इषुकार नामक नगर था । पूर्वभव में देवरूप में एकत्र विद्यमान छह जीव वहाँ राजा इषुकार, रानी कमलावती, राजपुरोहित, राजपुरोहित-पत्नी यशा तथा दो पुरोहितकुमारों के रूप में उद्भूत हुए।
पुरोहितकुमारों में बीजरूप में वैराग्य के संस्कार विद्यमान थे। शुभ संयोग था, उन्होंने जैन मुनियों को देखा। उनके संस्कार उद्बुद्ध हुए। सांसारिक सुखों से विरक्ति हुई। उन्हें अपने पूर्व-भव का स्मरण हुआ। तब का संयममय जीवन उनके लिए प्रेरक बना। उन्होंने संसार का परित्याग कर प्रबजित होने का निश्चय किया।
वे अपने पिता के पास आये और उनसे दीक्षा ग्रहण करने की आज्ञा चाही। पिता यह सुनकर स्तब्ध रह गया। सांसारिक मोहवश उसे यह अच्छा नहीं लगा कि उसके पूत्र
१. रत्ति न भुंजेय्य विकाल-भोजनं ।
-सुत्तनिपात २६.२५ २. संयुत्त निकाय, पापसुत्त ५४.८.६
____Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org