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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड:३
आदि मुख शुद्धि कर पदार्थ कल या परसों काम आयेंगे, यह सोचकर अपने पास न रखे, उन्हें संगृहीत न करे, न करवाए, वस्तुतः वही भिक्षु है।'
भिक्षु को चाहिए कि वह अन्न, पान, खाद्य एवं वस्त्र प्राप्त कर उनका संग्रह न करे, अपने पास जमा न करे। यदि वे प्राप्त न हों तो वह पतिप्त न हो-दु:खी न बने ।
रात्रि-भोजन का निषेध अहिंसा की दृष्टि से जैन धर्म में रात्रि-भोजन का परिवर्जन है। सूर्यास्त के पश्चात् एक जैन साधु किसी भी स्थिति में किसी भी प्रकार के खाद्य, पेय आदि पदार्थों का सेवन नहीं करता। न उसमें रोग अपवाद है और न मारणान्तिक वेदना ही, जो अविचलित व्रतपालन का प्रतीक है। बौद्ध-परंपरा में भी रात्रि-भोजन का परिवर्जन रहा है. आज भी है। दार्शनिक दृष्ट्या वहाँ भी अहिंसा एवं करुणा का भाव उसके मूल में है।
जैन धर्म एवं बौद्ध धर्म क्रमशः अहिंसा तथा करुणा पर विशेष जोर देते हैं। उनकी समग्र जीवन-चर्या इसी दृष्टि से परिगठित हुई है कि कहीं अहिंसा तथा करुणा पर व्याधात न आ पाए। यही कारण है, दोनों ही परंपराओं में रात्रि भोजन का अनिवार्यतः परिहार किया गया है।
सूर्य के अस्तंगत हो जाने-सूरज छिप जाने के बाद प्रात: सूरज उगने तक साधु सभी प्रकार के आहार आदि की मन से भी अभ्यर्थना—कामना न करे ।'
भगवन् ! मैं सब प्रकार के रात्रि-भोजन का प्रत्याख्यान करता है। आज से मैं अशन-अन्न आदि से तैयार किये गये भोज्य-पदार्थ, पान-जल आदि पेय-पदार्थ, खाद्य - काज, बादाम खूबानी आदि चबाकर खाये-जानेवाले पदार्थ, स्वाद्य-लौंग, इलायची आदि मुखवास कर पदार्थ रात में नहीं खाऊंगा, न औरों को खिलाऊंगा और न खाने वालों का अनुमोदन ही करूंगा। इस प्रकार मैं रात्रि-भोजन से सर्वथा विरत होता है।
___ मैं जीवन-पर्यन्त तीन करण-कृत, कारित, अनुमोदित तथा तीन योग-मन से, वचन से एवं शरीर से वैसा नहीं करूंगा-रात्रि-भोजन नहीं करूंगा, न कराऊंगा और न करते हुए को अच्छा समझंगा।
भगवन् ! मैं रात्रि-भोजन रूप पाप से निवृत्त होता है। उसकी निन्दा करता है। तत्प्रवृत्त आत्मा का व्युत्सर्जन करता हूँ, वैसी प्रवृत्ति का त्याग करता हूँ।
१. तहेव असणं पाणगं वा, विविहं खाइमं साइमं लभित्ता। होही अट्ठो सुए परे वा, तं ण णिहे ण णिहावएजे स भिक्खू ॥
- दशवैकालिक सूत्र १०.८ २. अन्नानमथो पानानं, खादनीयमथोपि वत्थानं । लद्धा न सन्निथि कयिरा, न च परित्तसेतानि अलभमानो।।
-सुत्तनिपात ५२.१० ३. दशवैकालिक सूत्र ८.२८ ४. दशवकालिक सूत्र ४.१३
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