________________
तत्त्व : आचार : कथानयोग ]
आचार
१३ लोभ से आपूर्ण है; वह क्या श्रमण होगा।
जो छोटे और बड़े पापों का सर्वथा शमन करता है, उन्हें मिटाता है-पापाचरण से सर्वथा विरहित है, वही पापों का शमन करने के कारण वास्तव में श्रमण कहा जाता है।
जो एक ओर असत् कार्यों में लग्न है, दूसरी ओर औरों के पास जाकर भिक्षा की याचना करता है, इससे कोई भिक्षु नहीं हो जाता ।।
जो पुण्य एवं पाप का परिहार कर, इन दोनों से ऊंचा उठ, ब्रह्मचर्य-पूर्वक, ज्ञानोपासना के साथ जगत् में विचरण करता है, वही, वास्तव में भिक्षु कहलाता है।
जो अविद्वान् है- विद्वान् नहीं है, मूढ है, वह केवल मौन स्वीकारने मात्र से मुनि नहीं होता। जो विज्ञाजन-गृहीत तुला की ज्यों उत्तम तत्त्व स्वायत्त कर पापों का परिवर्जन करता है-परित्याग करता है, जो दोनों लोकों का मनन करता है, उनके स्वरूप चिन्तन करता है, वास्तव में वही मुनि होता है।
अशन, पान आदि का प्रसंग्रह एक भिक्षु या श्रमण अनिवार्य रूप से अपरिग्रही होता है । अपरिग्रह का अभिप्राय केवल धन-दौलत एवं विपुल साधन-सामग्री न रखने से ही नहीं है, उसका विस्तार रोजमर्रा के खाने-पीने के पदार्थों के संग्रह तक, जिसके मूल में आगे के लिए सुरक्षा या सुविधा है, जाता है। एक दिन का खाना जमा रखना-बात तो बहुत छोटी है, किन्तु, अभिप्रायशः बहुत बड़ी है। यदि संग्रह का द्वार खुल जाता है तो यह नितान्त आशंकित है, संग्रह अल्प से बहु, विपुल तथा विपुल असीम होना ही चाहेगा। .
अशन-रोटी, भात आदि अन्न-निर्मित भोजन, पान-पानी, दूध आदि पेय पदार्थ, खादिम-खाद्य-फल, मेवा आदि अन्नरहित खाद्य पदार्थ, स्वादिम–स्वाद्य-पान, सुपारी
१. न मुण्डकेन समणो, अब्बतो अलिक भणं । इच्छा लोभसमापन्नो, समणो किं भविस्सति ।। यो च समेति पापानि, अणुं थूलानि सब्बसो । समितत्ता हि पापानं, समणो' ति पवुच्चति ॥ न तेन भिक्खू (सो) होति, यावता भिक्खते परे। विस्सं धम्म समादाय, भिक्खू होति न तावता ॥ यो'ध पुञञ्च पापञ्च, वाहित्त्वा ब्रह्मचरियवा । सखाया लोके चरति, स वे भिक्खू ति वुच्चति ।। न मोनेन मुनी होति, मल्हरूपो अविद्दसु । योच तुलं' व पग्गटह, चरमादाय पण्डितो ।। पापानि परिवज्जेति, स मुनी तेन सो मुनि ॥ यो मुनाति उभो लोके, मुनी तेन पवुच्चति ॥
-धम्मपद, धर्मार्थवर्ग ६-१४
Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org