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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड:३
जो ऐसी बात नहीं कहता, जिससे कलह उत्पन्न हो, जो किसी पर क्रोध नहीं करता, अपनी इन्द्रियों को सदा नियंत्रित रखता है, वश में रखता है, प्रशान्त रहता है, जो संयम में ध्रुवयोग युक्त-अविचल-- तल्लीन रहता है, जो सदा उपशान्त रहता है--संकट में भी कभी आकुल नहीं होता, यथासमय संपादनीय सामायक, प्रतिलेखन आदि कार्यों की उपेक्षा नहीं करता, वस्तुतः वही साधु है।'
सुत्तनिपात में भी लगभग ऐसा ही वर्णन है, जहाँ भिक्षु के लिए क्रोध न करने, विग्राहिक-विग्रहोत्पादक या कलहोत्पादक बात न कहने, कठोर भाषा का प्रयोग न करने, श्रमणोचित उत्तम आचरण में रत रहने का उपदेश दिया-गया है।'
श्रमण का स्वरूप : समता-पाप-शमन श्रमण शब्द जैन-परम्परा एवं बौद्ध-परम्परा-दोनों में सर्वस्व-त्यागी, समतानुरत, सत्य-भाषी, सद्ज्ञान-निरत भिक्षु, साधु या संन्यस्त के लिए प्रयुक्त हुआ है। दोनों के अनुसार वह साधना के उत्कर्ष का आदर्श है। मुनि उसी का पर्यायवाची है। पुनश्च तापस की यथार्थता तपश्चरण में है, बाह्य वेष-परिधान में नहीं।
मुण्डित होने से-शिर मुंडा लेने से कोई श्रमण नहीं हो जाता, न ओंकार का उच्चारण करने से ही कोई ब्राह्मण हो जाता है। वन में वास करने से कोई मुनि नहीं होता और न वल्कल -- वस्त्र के स्थान पर वृक्ष की छाल धारण करने से कोई तापस होता है।
समता अपनाने से-समतामय जीवन जीने से व्यक्ति श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण होता है, ज्ञान से मुनि होता है तथा तपश्चरण से तापस होता है।
जो मुण्डित है--जिसने मस्तक तो मुंडा रखा है, पर जो अव्रत है -व्रतरहित है-व्रत-पालन नहीं करता, अलीकभाषी है--असत्य-भाषण करता है, जो इच्छाओं से,
१. ण य वुग्गहियं कहं कहिज्जा,
ण य कुप्पे णिहुइंदिए पसंते । संजमे घुवं जोगेण जुत्ते, उवसंते अविहेडए जे स भिक्खू॥
-दश वैकालिक सूत्र १०.१० २. न च कत्थिता सिया भिक्खू ,
न च वाचं पयुतं भासेय्य । पागभियं न सिक्खेय्य, कथं विग्गाहिकं न कथयेय्य ।।।
-सुत्रनिपात ५२.१६ ३. न वि मुंडिएण समणो, न ओंकारेण बंभणो।
न मुणी रण्णवासेणं, कुसचीरेण न तावसो॥ समयाए समणो होइ, बंभचेरेण बंभणो। नाणेण य मुणी होइ, तवेण होइ तावसो ॥
--उत्तराध्ययन सूत्र २५.३१,३२.
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