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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] आचार - सत् शिष्य के लिए-सात्त्विक गुणोपेत अन्तेवासी के लिए-जिज्ञासु के लिए गुरु का अनुशासन प्रिय-रुचिकर होता है, असत् शिष्य के लिए-असात्त्विक गुणोपेत अन्तेवासी के लिए-जिज्ञासु के लिए गुरु का अनुशासन अप्रिय होता है। जो भरी जवानी में बुद्ध-शासन में-भगवान् बुद्ध द्वारा निदेशित धर्म में संलग्न होता है, वह युवा भिक्षु बादलों को चीरकर बाहर निकले चन्द्र की ज्यों इस लोक को प्रभा. सित-प्रकाशित करता है। मुनि की प्रादर्श भिक्षा-चर्या श्रमण-परम्परा में भिक्षु, मुनि या श्रमण की भिक्षाचर्या ऐसे आदर्श नियमों एवं विधि-विधानों पर आधृत है, जिससे वह किसी भी तरह समाज पर भार नहीं बनता। तमी उसकी वायुवत् अप्रतिबन्ध विहारिता फलित होती है। श्रमण-वाङ्मय में इस सम्बन्ध में जो विवेचन हुआ है, निश्चय ही वह बड़ा उद्बोधप्रद है। भौंरा वृक्षों के अनेक पुष्पों से थोड़ा-थोड़ा रस पीता है। वह पुष्पों को क्लान्तपीड़ित नहीं करता, थोड़े थोड़े रस द्वारा परितुष्ट हो जाता है-अपनी पूर्ति कर लेता है। भी प्रकार जगत् में साधु-श्रमण गृहस्थों के लिए जरा भी असुविधा उत्पन्न न करते हए अनेक स्थानों से-घरों से थोड़े-थोड़े प्रासुक आहार आदि की गवेषणा में उद्यत रहता है। भौंरा फूलों के वर्ण, गन्ध आदि को जरा भी हानि नहीं पहुँचाता हुआ उनका रस लेकर चला जाता है, उसी प्रकार गाँव में मुनि को भिक्षार्थ विचरण करना चाहिए।४ भिक्षु की व्यवहार-चर्या बाह्य व्यवहार अन्तर्वृत्तियों का सूचक है। जिसका जीवन साधनानुरत है, यह आवश्यक है, उसका व्यवहार तदनुरूप हो । उसकी वाणी में कठोरता न हो, बर्ताव में असहिष्णुता तथा क्रोध न हो। वह जीवन में सदा संयत, प्रशान्त एवं जागरूक रहे। १. सतं हि सो पियो होति, असतं होति अप्पियो । -थेरगाथा ६६७ २. यो ह वे दहरो भिक्खु, युञ्जते बुद्ध सासने। सो इमं लोकं पभासेति, अब्भा मुत्तो'व चन्दिमा ।। -धम्मपद २५.२३ ३. जहा दुमस्स पुप्फेसु, भभरो आवियइ रसं । ण य पुप्फ किलामेइ, सो य पीणेइ अप्पयं ॥ एमेए समणा मुत्ता, जे लोए संति साहुणो । विहंगमा व पुप्फेसु, दाजभत्तेसणे रया ।। -दशवैकालिक सूत्र १.२.३. ४. यथापि भमरो पुप्फं, बण्णगंधं अहेठयं । पलेति रसमादाय, एवं गामे मुनी चरे । -धम्मपद ४.६ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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