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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : ३
समय पर भिक्षार्थ गांव में जाए।'
इच्छाओं का अल्पीकरण-सन्तोष सत्पुरुषों द्वारा प्रशस्त -प्रशंसास्पद बतलाया गया है। साधनामय जीवन में इसकी बड़ी उपयोगिता है।
भिक्षु को चाहिए कि वह प्राप्त भिक्षान्न की सन्निधि-संचय या संग्रह न करे। यदि भिक्षान्न प्राप्त न हो तो वह परिताप न करे, दुःखित न हो ।'
जिस प्रकार कछुआ अपने सब अंगों को मस्तक में समेट लेता है, उसी प्रकार भिक्षु को चाहिए कि वह अपने मानसिक वितर्कों को-संशय-पूर्ण विचारों को अपने में सिकोड़ ले, उन्हें विस्तार न पाने दे, उन्हें दूर करदे ।
बुद्ध का श्रावक- उन्हें सुननेवाला अन्तेवासी भिक्षु सत्कार का अभिनन्दन न करे सत्कार प्राप्त कर आनन्दित न हो, सत्कार की अभिकांक्षा न करे। वह सदा अपने विवेक की संवृद्धि करता जाए।
पण्डितजन---ज्ञानवान पुरुष सुख से स्पष्ट होकर--सूख प्राप्त कर अथवा दुःख से स्पृष्ट होकर-दुःख प्राप्त कर उच्च-ऊंचे अथवा अवच-नीचे विचार प्रदर्शित नहीं करते, प्रकट नहीं करते, समान भाव लिये रहते हैं।
भिक्षु कहीं भी उत्सुकता या तृष्णा का भाव न रखे ।
१.न वे विकाले विचरेय्य भिक्ख, गामं च पिण्डाय चरेय्य काले।
-सुत्तनिपात २६.११ २. अप्पिच्छा सप्पुरिसेहिं वण्णिता।
-थेरगाथा ११.२७ ३. लद्धा न सन्निधि कयिरा न च परितते तानि अलभमानो।
-सुत्तनिपात ५२.१० ४. कुम्मे च अंगानि सके कपाले, समोदहं भिक्खु मनो वितक्के)
-मिलिन्द प्रश्न ५. अञ्जा हि लाभूपनिसा, असा निब्बानगामिनी। एवमेतं अभिआय, भिक्खू बुद्धस्स सावको ॥ सक्कारं नाभिनन्देय्य, विवेकमनुब्र हये ।।
-धम्मपद ५.१६ ६. सुखेन फुट्ठा अथवा दुखेन, न उच्चावचं पण्डिता दस्सयन्ति ।
-धम्मपद ६.८ ७. उस्सदं भिक्खु न करेग्य कुहिं च।
-सुत्तनिपात ५२.६
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